ए꣣वा꣢ रा꣣ति꣡स्तु꣢विमघ꣣ वि꣡श्वे꣢भिर्धायि धा꣣तृ꣡भिः꣢ । अ꣡धा꣢ चिदिन्द्र नः꣣ स꣡चा꣢ ॥८२५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एवा रातिस्तुविमघ विश्वेभिर्धायि धातृभिः । अधा चिदिन्द्र नः सचा ॥८२५॥
ए꣣व꣢ । रा꣣तिः꣢ । तु꣣विमघ । तुवि । मघ । वि꣡श्वे꣢꣯भिः । धा꣣यि । धातृ꣡भिः꣢ । अ꣡ध꣢꣯ । चि꣣त् । इन्द्र । नः । स꣡चा꣢꣯ ॥८२५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
इस प्रकार अपने आत्मा को उद्बोधन देकर अब परमात्मा को कहते हैं।
हे (तुविमघ) बहुत धनी परमेश ! (एव) सचमुच, तेरा (रातिः) दान (विश्वेभिः) सब (धातृभिः) धारकों के द्वारा (धायि) धारण किया हुआ है। (अध चित्) इसके अतिरिक्त, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् विपत्तिविदारक परमात्मन् ! तू (नः) हमारा (सचा) नित्य का साथी है ॥२॥
जगदीश्वर यदि हमारा सखा हो जाता है तो हमारे लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
एवं स्वात्मानमुद्बोध्य सम्प्रति परमात्मानं ब्रूते।
हे (तुविमघ) बहुधन परमेश ! (एव) सत्यमेव, तव (रातिः) दानम् (विश्वेभिः) सर्वैः (धातृभिः) धारकैः (धायि) अधायि, धियते। (अध चित्) तदतिरिक्तम्, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् विपत्तिविदारक परमात्मन्, त्वम् (नः) अस्माकम् (सचा) नित्यं सहभवः सखा भवसि ॥२॥
जगदीश्वरश्चेदस्माकं सखा जायते तर्हि न किमप्यस्मभ्यं दुर्लभम् ॥२॥