य꣡ ओजि꣢꣯ष्ठ꣣स्त꣡मा भ꣢꣯र꣣ प꣡व꣢मान श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । यः꣡ पञ्च꣢꣯ चर्ष꣣णी꣢र꣣भि꣢ र꣣यिं꣢꣫ येन꣣ व꣡ना꣢महे ॥८२०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)य ओजिष्ठस्तमा भर पवमान श्रवाय्यम् । यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहे ॥८२०॥
यः । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठः । तम् । आ । भ꣣र । प꣡व꣢꣯मान । श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । यः । प꣡ञ्च꣢꣯ । च꣣र्षणीः꣢ । अ꣣भि꣢ । र꣣यि꣢म् । ये꣡न꣢꣯ । व꣡ना꣢꣯महे ॥८२०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य को कहा जा रहा है।
हे (पवमान) पवित्रकर्त्ता परमात्मन् वा आचार्य (यः) जो आपका (ओजिष्ठः) अतिशय ओजस्वी आनन्दरस वा ज्ञानरस है, (तम्) उस (श्रवाय्यम्) यश के हेतु रस को (आ भर) प्रदान कीजिए, (यः) जो आनन्द-रस या ज्ञान-रस (पञ्च चर्षणीः) पाँच ज्ञान की साधन इन्द्रियों को या पाँच प्राणों को (अभि) अभिव्याप्त कर लेवे और (येन) जिस आनन्द-रस वा ज्ञान-रस से, हम (रयिम्) भौतिक और आध्यात्मिक धन को (वनामहे) प्राप्त करें ॥३॥
जैसे परमात्मा अपने उपासक को ऐसा आनन्द प्रदान करता है, जिससे वह दिव्य सम्पत्ति पा लेता है, वैसे ही गुरुओं को चाहिए कि वे विद्यार्थियों को वैसा ज्ञान देवें जिससे धन कमाना सुलभ हो ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानमाचार्यं च प्राह।
हे (पवमान) पवित्रकर्त्तः परमात्मन् आचार्य वा ! (यः) यः त्वदीयः (ओजिष्ठः) ओजस्वितमः आनन्दरसः ज्ञानरसो वा अस्ति (तम् श्रवाय्यम्) तं यशोहेतुकं रसम्। [श्रावयतीति श्रवाय्यः। शृणोतेः ‘श्रुदक्षिस्पृहिभ्य आय्यः।’ उ० ३।९६ इति आय्यप्रत्ययः।] (आ भर) आ हर, (यः) आनन्दरसो ज्ञानरसो वा (पञ्च चर्षणीः२) पञ्च ज्ञानसाधनानि इन्द्रियाणि पञ्च प्राणान् वा (अभि) अभिव्याप्नुयात् (येन) आनन्दरसेन ज्ञानरसेन वा, वयम् (रयिम्) भौतिकम् आध्यात्मिकं च धनम् (वनामहे) सम्भजामहे ॥३॥
यथा परमात्मा स्वोपासकाय तादृशमानन्दं प्रयच्छति येन स दिव्यां सम्पदं लभते तथैव गुरुभिर्विद्यार्थिभ्यस्तादृशं ज्ञानं देयं येन धनार्जनं सुलभं स्यात् ॥३॥