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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: नहुषो मानवः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः काण्ड:

अ꣣यं꣢ पू꣣षा꣢ र꣣यि꣢꣫र्भगः꣣ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति । प꣢ति꣣र्वि꣡श्व꣢स्य꣣ भू꣡म꣢नो꣣꣬ व्य꣢꣯ख्य꣣द्रो꣡द꣢सी उ꣣भे꣢ ॥८१८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अयं पूषा रयिर्भगः सोमः पुनानो अर्षति । पतिर्विश्वस्य भूमनो व्यख्यद्रोदसी उभे ॥८१८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣य꣢म् । पू꣣षा꣢ । र꣣यिः꣢ । भ꣡गः꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । पु꣡नानः꣢ । अ꣡र्षति । प꣡तिः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । भू꣡म꣢꣯नः । वि । अ꣣ख्यत् । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ ॥८१८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 818 | (कौथोम) 2 » 1 » 16 » 1 | (रानायाणीय) 3 » 5 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५४६ पर परमात्मा के पक्ष में व्याख्या की गयी थी। यहाँ आचार्य का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पूषा) शारीरिक तथा आत्मिक पुष्टि का प्रदाता, (रयिः) विद्याधन से युक्त, (भगः) भजनीय, समित्पाणि शिष्यों से सेवनीय (अयं सोमः) यह सद्विद्याओं का प्रेरक आचार्य (पुनानः) शिष्यों को पवित्र करता हुआ (अर्षति) क्रियाशील होता है। (विश्वस्य भूमनः) समस्त विस्तृत ज्ञान का (पतिः) स्वामी यह आचार्य, ज्ञान-प्रदान द्वारा शिष्यों के सम्मुख (उभे रोदसी) आकाश-भूमि दोनों को (व्यख्यत्) प्रकाशित कर देता है। कहा भी है—आचार्य विस्तृत, गम्भीर इन दोनों द्यावापृथिवी को ब्रह्मचारी के सम्मुख घड़कर प्रकट कर देता है। उन्हें वह ब्रह्मचारी तप से अपने अन्दर धारण करता है। उसमें सब देव अनुकूल मनवाले हो जाते हैं (अथ० ११।५।८) ॥१॥

भावार्थभाषाः -

विद्वान् आचार्य को चाहिए कि वह ब्रह्मचारियों को आकाश-भूमि दोनों के सूर्य, नक्षत्र, जल, वायु, विद्युत्, मेघ, नदी, समुद्र, ओषधि, वनस्पति, भूगर्भ आदि का ज्ञान और चारित्रिक शिक्षा देता हुआ उन्हें पवित्र करे ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५४६ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे व्याख्याता। आत्राचार्यविषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पूषा) दैहिकात्मिकपुष्टिप्रदाता (रयिः) रयिमान् विद्यैश्वर्यवान्। [अत्र मतुपो लुक्।] (भगः) भजनीयः, समित्पाणिभिः शिष्यैः सेवनीयः (अयं सोमः) एष सद्विद्याप्रेरकः आचार्यः (पुनानः) शिष्यान् पवित्रीकुर्वन् (अर्षति) क्रियाशीलो जायते। (विश्वस्य भूमनः) सकलस्य विस्तीर्णस्य ज्ञानस्य (पतिः) अधिपतिः एष आचार्यो ज्ञानप्रदानद्वारा शिष्याणां सम्मुखम् (उभे रोदसी) द्वे अपि द्यावापृथिव्यौ (व्यख्यत्) प्रकाशयति। उक्तं च यथा—आ॒चा॒र्य स्ततक्ष॒ नभ॑सी उ॒भे इ॒मे उ॒र्वी ग॑म्भी॒रे पृ॑थि॒वीं दिवं॑ च। ते र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तस्मि॑न् दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति (अथ० ११।५।८) इति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

विद्वानाचार्यो ब्रह्मचारिभ्य उभयोर्द्यावापृथिव्योः सूर्यनक्षत्रजलवायुविद्युन्मेघसरित्समुद्रौषधिवनस्पति-भूगर्भादीनां ज्ञानं चारित्रिकीं च शिक्षां प्रयच्छन् तान् पुनीयात् ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०१।७, साम० ५४६।