य꣢स्ते꣣ म꣢दो꣣ व꣡रे꣢ण्य꣣स्ते꣡ना꣢ पव꣣स्वा꣡न्ध꣢सा । दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥८१५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यस्ते मदो वरेण्यस्तेना पवस्वान्धसा । देवावीरघशꣳसहा ॥८१५॥
यः꣢ । ते꣣ । म꣡दः꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ण्यः । ते꣡न꣢꣯ । प꣣वस्व । अ꣡न्ध꣢꣯सा । दे꣢वावीः꣣ । दे꣢व । अवीः꣢ । अ꣣घशꣳसहा꣢ । अ꣣घशꣳस । हा꣢ ॥८१५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४७० क्रमाङ्क पर परमात्मा के आनन्दरस के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ परमेश्वर और आचार्य से प्रार्थना की गयी है।
हे पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्त्ता आनन्दरसागार परमात्मन् वा ज्ञानरसागार आचार्य ! (यः ते) जो आपका (वरेण्यः) वरणीय, (मदः) उत्साहप्रद आनन्द-रस वा ज्ञानरस है, (तेन अन्धसा) उस आनन्दरस वा ज्ञानरस से (पवस्व) हम उपासकों वा शिष्यों को पवित्र करो और, आप (देवावीः) दिव्यगुणप्राप्ति करानेवाले, तथा (अघशंसहा) पापप्रशंसक दुर्विचारों का विनाश करनेवाले होवो ॥१॥
जैसे जगदीश्वर उपासकों को आनन्दरस प्रदान करता, दिव्य गुण प्राप्त कराता और उनके दुर्विचारों को नष्ट करता है, वैसे ही शिष्यों को विद्या देना, उनका आनन्द बढ़ाना, उनके दोषों को नष्ट करना और उनमें सद्गुणों का आरोपण करना गुरुओं का कर्तव्य है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७० क्रमाङ्के परमात्मानन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र परमेश्वर आचार्यश्च प्रार्थ्यते।
हे पवमान सोम पवित्रकर्तः आनन्दरसागार परमात्मन् ज्ञानरसागार आचार्य वा ! (यः ते) यः तव (वरेण्यः) वरणीयः (मदः) उत्साहप्रदः आनन्दरसो ज्ञानरसो वा अस्ति, (तेन अन्धसा) तेन आनन्दरसेन ज्ञानरसेन वा (पवस्व) उपासकान् शिष्यान् वा अस्मान् पुनीहि। किञ्च, त्वम् (देवावीः) दिव्यगुणानां प्रापयिता, (अघशंसहा) पापप्रशंसकानां दुर्विचाराणां हन्ता च भवेति शेषः ॥१॥
यथा जगदीश्वर उपासकेभ्य आनन्दरसं प्रयच्छति, दिव्यगुणान् प्रापयति, तेषां दुर्विचारांश्च हन्ति तथैव शिष्येभ्यो विद्याप्रदानं, तेषामानन्दवर्धनं, दोषाणां हननं, तेषु सद्गुणारोपणं च गुरूणां कर्त्तव्यमस्ति ॥१॥