म꣡त्स्वा꣢ सुशिप्रिन्हरिव꣣स्त꣡मी꣢महे꣣ त्व꣡या꣢ भूषन्ति वे꣣ध꣡सः꣢ । त꣢व꣣ श्र꣡वा꣢ꣳस्युप꣣मा꣡न्यु꣢क्थ्य सु꣣ते꣡ष्वि꣢न्द्र गिर्वणः ॥८१४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मत्स्वा सुशिप्रिन्हरिवस्तमीमहे त्वया भूषन्ति वेधसः । तव श्रवाꣳस्युपमान्युक्थ्य सुतेष्विन्द्र गिर्वणः ॥८१४॥
म꣡त्स्व꣢꣯ । सु꣣शिप्रिन् । सु । शिप्रिन् । हरिवः । त꣢म् । ई꣣महे । त्व꣡या꣢꣯ । भू꣣षन्ति । वे꣡धसः꣢ । त꣡व꣢꣯ । श्र꣡वा꣢꣯ꣳसि । उ꣣प꣡मानि꣡ । उ꣣प । मा꣡नि꣢꣯ । उ꣡क्थ्य । सुते꣡षु꣢ । इ꣢न्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः ॥८१४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में गुरुओं के भी गुरु परमात्मा की स्तुति है।
हे (सुशिप्रिन्) सर्वान्तर्यामी, (हरिवः) आकर्षणशील सूर्य, चन्द्र आदि लोकों के स्वामी परमात्मन् ! आप (मत्स्व) हमें आनन्दित कीजिए। (तम्) उन आनन्दप्रद आपसे हम (ईमहे) याचना करते हैं। (वेधसः) मेधावी उपासक (त्वया) आप से (भूषन्ति) स्वयं को अलङ्कृत करते हैं। हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय, (गिर्वणः) वाणियों से संभजनीय (इन्द्र) जगदीश्वर ! (तव) आपके (श्रवांसि) यश (सुतेषु) आपके पुत्र मनुष्यों में (उपमानि) उपमान योग्य होते हैं, अर्थात् मनुष्यों के यश परमात्मा के यशों के समान उज्ज्वल हों, इस प्रकार उपमान बनते हैं ॥२॥
हृदय में परमात्मा को धारण करने से ही लोग अलङ्कृत होते हैं, शरीर के अङ्गों में कटक, कुण्डल, स्वर्णहार आदि धारण करने से नहीं ॥२॥ इस खण्ड में विद्वानों का और आचार्य का ब्रह्मविद्या में योगदान कहकर जीवात्मा और परमात्मा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ तृतीय अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ गुरूणामपि गुरुं परमात्मानं स्तौति।
हे (सुशिप्रिन्) सुसर्पिन् सर्वान्तर्यामिन् ! (हरिवः) हरीणाम् आकर्षणशीलानां सूर्यचन्द्रादिलोकानां स्वामिन् परमात्मन् ! त्वम् (मत्स्व) अस्मान् आनन्दय, (तम्) आनन्दप्रदं त्वाम्, वयम् (ईमहे) याचामहे। [ईमहे इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। निघं० ३।१९।] (वेधसः) मेधाविनः उपासकाः। [वेधाः इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५।] (त्वया) परमात्मना (भूषन्ति) आत्मानम् अलङ्कुर्वन्ति। [भूष अलङ्कारे भ्वादिः।] हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय, (गिर्वणः) गीर्भिः वननीय संभजनीय (इन्द्र) जगदीश्वर ! (तव) त्वदीयानि (श्रवांसि) यशांसि (सुतेषु) त्वत्पुत्रेषु मानवेषु (उपमानि) उपमातुं योग्यानि भवन्ति, मानवानां यशांसि परमात्मयशांसीव उज्ज्वलानि भवन्त्विति उपमानतां गच्छन्तीत्यभिप्रायः ॥२॥
हृदि परमात्मनो धारणेनैव जना अलङ्क्रियन्ते, न तु शरीराङ्गेषु कटककुण्डलस्वर्णहारादिधारणेन ॥२॥ अस्मिन् खण्डे विदुषामाचार्यस्य च ब्रह्मविद्यादौ योगदानमुक्त्वा जीवात्मपरमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिर्वेद्या ॥