अ꣣भि꣡ प्र वः꣢꣯ सु꣣रा꣡ध꣢स꣣मि꣡न्द्र꣢मर्च꣣ य꣡था꣢ वि꣣दे꣢ । यो꣡ ज꣢रि꣣तृ꣡भ्यो꣢ म꣣घ꣡वा꣢ पुरू꣣व꣡सुः꣢ स꣣ह꣡स्रे꣢णेव꣣ शि꣡क्ष꣢ति ॥८११॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि प्र वः सुराधसमिन्द्रमर्च यथा विदे । यो जरितृभ्यो मघवा पुरूवसुः सहस्रेणेव शिक्षति ॥८११॥
अ꣣भि꣢ । प्र । वः꣣ । सुरा꣡ध꣢सम् । सु꣣ । रा꣡ध꣢꣯सम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣र्च । य꣡था꣢꣯ । वि꣣दे꣢ । यः । ज꣣रितृ꣡भ्यः꣢ । म꣣घ꣡वा꣢ । पु꣣रूव꣡सुः꣢ । पु꣣रु । व꣡सुः꣢꣯ । स꣣ह꣡स्रे꣢ण । इ꣢व । शि꣡क्ष꣢꣯ति ॥८११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २३५ क्रमाङ्क पर परमेश्वर की अर्चना के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ आचार्य का विषय वर्णित करते हैं।
हे छात्रो ! (वः) तुम (सुराधसम्) उत्तम सिद्धि देनेवाले (इन्द्रम्) तपस्यारूप ऐश्वर्य से युक्त आचार्य की (अर्च) अर्चना करो, अर्थात् समित्पाणि होकर उसकी शरण में जाकर उसकी सेवा करो, (यथा विदे) जिससे वह तुम्हारी विद्याग्रहण की योग्यता को जाने। कैसे आचार्य की? (यः) जो (पुरूवसुः) बहुत विद्यारूप धनवाला, (मघवा) विद्या का दान करनेवाला आचार्य (जरितृभ्यः) स्तोता छात्रों को (सहस्रेण इव) मानों हजार मुखों से (शिक्षति) शिक्षा देता है ॥१॥ इस मन्त्र में ‘मानो हजार मुखों से’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥१॥
आचार्य के पास से ही लोकविद्या और ब्रह्मविद्या प्राप्त होती है। इस रूप में उसका महत्त्व जानकर कृतज्ञतापूर्वक उसका सबको सम्मान करना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २३५ क्रमाङ्के परमेश्वरार्चनविषये व्याख्याता। अत्राचार्यविषयो वर्ण्यते।
हे छात्राः ! (वः) यूयम् (सुराधसम्) सुसिद्धिप्रदायकम् (इन्द्रम्) तपोरूपैश्वर्यवन्तम् आचार्यम् (अर्च) अर्चत, समित्पाणयो भूत्वा तच्छरणमुपगम्य तं परिचरत। [अत्र पुरुषव्यत्ययः।] (यथा विदे) येन स युष्माकं विद्याग्रहणयोग्यतां जानीयात्। कीदृशम् आचार्यम् ? (यः पुरूवसुः) बहुविद्याधनः (मघवा) विद्यादानवान्२ आचार्यः (जरितृभ्यः) स्तोतृभ्यः छात्रेभ्यः (सहस्रेण इव) मुखसहस्रेण इव (शिक्षति) शिक्षयति। [णिज्गर्भोऽयं प्रयोगः] ॥१॥ सहस्रेण इव इत्यत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥१॥
आचार्यसकाशादेव लोकविद्या ब्रह्मविद्या च प्राप्यत इति तन्महत्त्वं विज्ञाय कृतज्ञतया स सर्वैः संमाननीयः ॥१॥