र꣣सा꣢य्यः꣣ प꣡य꣢सा꣣ पि꣡न्व꣢मान ई꣣र꣡य꣢न्नेषि꣣ म꣡धु꣢मन्तम꣣ꣳशु꣢म् । प꣡व꣢मान सन्त꣣नि꣡मे꣢षि कृ꣣ण्व꣡न्निन्द्रा꣢꣯य सोम परिषि꣣च्य꣡मा꣢नः ॥८०७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)रसाय्यः पयसा पिन्वमान ईरयन्नेषि मधुमन्तमꣳशुम् । पवमान सन्तनिमेषि कृण्वन्निन्द्राय सोम परिषिच्यमानः ॥८०७॥
र꣣सा꣡स्यः꣢ । प꣡य꣢꣯सा । पि꣡न्व꣢꣯मानः । ई꣣र꣡य꣢न् । ए꣣षि । म꣡धु꣢꣯मन्तम् । अ꣣ꣳशु꣢म् । प꣡व꣢꣯मान । स꣣न्तनि꣢म् । स꣣म् । त꣢निम् । ए꣣षि । कृण्व꣢न् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । परिषिच्य꣡मा꣢नः । प꣣रि । सिच्य꣡मा꣢नः ॥८०७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जीवात्मा में ब्रह्मानन्दरस का प्रवाह वर्णित है।
हे (पवमान सोम) सम्पूर्ण जगत् के स्रष्टा, शुभगुणों के प्रेरक, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (रसाय्यः) रस से पूर्ण, (पयसा) रस से (पिन्वमानः) मुझ उपासक के हृदय को सींचते हुए आप (मधुमन्तम्) मधुर (अंशुम्) आनन्द को (ईरयन्) प्रेरित करते हुए (एषि) मुझे प्राप्त होते हो। (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (परिषिच्यमानः) झरते हुए आप, वहाँ (सन्तनिम्) विस्तार को (कृण्वन्) प्राप्त करते हुए (एषि) व्याप्त होते हो ॥२॥
आनन्दरस से पूर्ण परमात्मा की आनन्दरस की धारा से सिंचे हुए स्तोताओं के हृदय सरस हो जाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मनि ब्रह्मानन्दरसप्रवाहो वर्ण्यते।
हे (पवमान सोम) सर्वजगत्स्रष्टः शुभगुणप्रेरक सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! (रसाय्यः) रसेन पूर्णः। [रसेर्बाहुलकादौणादिक आय्यप्रत्ययः।] (पयसा) रसेन (पिन्वमानः) उपासकस्य मम हृदयं सिञ्चमानः, त्वम् (मधुमन्तम्) मधुरम् (अंशुम्) आनन्दम् (ईरयन्) गमयन् (एषि) मां प्राप्नोषि। (इन्द्राय) जीवात्मने (परिषिच्यमानः) निर्झरन् त्वम् तत्र (सन्तनिम्) विस्तारम् (कृण्वन्) कुर्वन् (एषि) व्याप्नोषि ॥२॥
आनन्दरसपूर्णस्य परमात्मन आनन्दधारया सिक्तानि स्तोतॄणां हृदयानि सरसानि जायन्ते ॥२॥