वृ꣡षा꣢ पवस्व꣣ धा꣡र꣢या म꣣रु꣡त्व꣢ते च मत्स꣣रः꣢ । वि꣢श्वा꣣ द꣡धा꣢न꣣ ओ꣡ज꣢सा ॥८०३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वृषा पवस्व धारया मरुत्वते च मत्सरः । विश्वा दधान ओजसा ॥८०३॥
वृ꣡षा꣢꣯ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । म꣣रु꣡त्व꣢ते । च꣣ । मत्सरः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द꣡धा꣢꣯नः । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥८०३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ४६९ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्या दी गयी थी। यहाँ आचार्य का विषय प्रदर्शित किया जा रहा है।
हे पवमान सोम अर्थात् पवित्र करनेवाले आचार्य ! (वृषा) विद्या के वर्षक आप (धारया) ज्ञान-धारा से (पवस्व) शिष्यों को पवित्र कीजिए। (मरुत्वते) प्राणायाम का अभ्यास करनेवाले शिष्य के लिए (मत्सरः) ब्रह्मानन्द के स्रावक होइए। साथ ही (ओजसा) विद्या-बल, सदाचार-बल और ब्रह्मचर्य-बल से (विश्वा) सब शिष्यों को (दधानः) धारण कीजिए ॥१॥
वही आचार्य होता है, जो शिष्यों को विद्या की धाराओं से स्नान कराता हुआ, उनका पिता के समान पालन करता हुआ उन्हें महान् पण्डित, तेजस्वी, ब्रह्मचारी, ब्रह्मानन्द में मग्न तथा सदाचारी बनाये ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४६९ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्राचार्यविषयः प्रदर्श्यते।
हे पवमान सोम पावित्र्यसम्पादक आचार्य ! (वृषा) विद्यावर्षकः त्वम् (धारया) ज्ञानधारया (पवस्व) शिष्यान् पुनीहि। (मरुत्वते) प्राणायामाभ्यासिने शिष्याय (मत्सरः) ब्रह्मानन्दस्रावको भवेति शेषः। किञ्च, (ओजसा) विद्याबलेन सदाचारबलेन ब्रह्मचर्यबलेन च (विश्वा) विश्वान् शिष्यान्। [अत्र ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति शसः आकारादेशः।] (दधानः) धारयन् पुष्णंश्च भवेति शेषः ॥१॥
स एवाचार्यो यः शिष्यान् विद्याधाराभिः स्नपयन् तान् पितृवत् पालयन् पण्डितप्रकाण्डांस्तेजस्विनो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मानन्दमग्नान् सदाचारिणश्च कुर्यात् ॥१॥