ता꣡ हि शश्व꣢꣯न्त꣣ ई꣡ड꣢त इ꣣त्था꣡ विप्रा꣢꣯स ऊ꣣त꣡ये꣢ । स꣣बा꣢धो꣣ वा꣡ज꣢सातये ॥८०१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)ता हि शश्वन्त ईडत इत्था विप्रास ऊतये । सबाधो वाजसातये ॥८०१॥
ताः । हि । श꣡श्व꣢꣯न्तः । ई꣡ड꣢꣯ते । इ꣣त्था꣢ । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । ऊत꣡ये꣢ । स꣣बा꣡धः꣢ । स꣣ । बा꣡धः꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये ॥८०१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर उसी विषय का वर्णन है।
(ता हि) उन दोनों इन्द्र और अग्नि अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा की (इत्था) सत्यभाव से (शश्वन्तः) बहुत से, (सबाधः) बाधाओं से पीड़ित (विप्रासः) विप्र जन (ऊतये) रक्षा के लिए और (वाजसातये) बलप्राप्ति के लिए (ईडते) स्तुति करते हैं, अर्थात् उनके गुण-कर्म-स्वभावों का वर्णन करते हैं ॥२॥
सांसारिक दुःखों को दूर करने के लिए तथा विपत्तियों में रक्षा की प्राप्ति और बल की प्राप्ति के लिए जगदीश्वर की उपासना करनी चाहिए और जीवात्मा को उद्बोधन देना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
पुनरपि स एव विषय उच्यते।
(ता हि) तौ खलु इन्द्राग्नी जीवात्मपरमात्मानौ (इत्था) सत्यभावेन। [इत्था इति सत्यनाम। निघं० ३।१०] (शश्वन्तः) बहवः। [शश्वत् इति बहुनाम। निघं० ३।१] (सबाधः) बाधाभिः पीडिताः (विप्रासः) विप्रजनाः (ऊतये) रक्षायै (वाजसातये) बलप्राप्तये च (ईडते) स्तुवन्ति, तद्गुणकर्मस्वभावान् कीर्तयन्तीत्यर्थः ॥२॥
संसारदुःखदलनाय विपत्सु रक्षाप्राप्तये बलप्राप्तये च जगदीश्वर उपासनीयो जीवात्मा चोद्बोधनीयः ॥२॥