इ꣡न्द्रे꣢ अ꣣ग्ना꣡ नमो꣢꣯ बृ꣣ह꣡त्सु꣢वृ꣣क्ति꣡मेर꣢꣯यामहे । धि꣣या꣡ धेना꣢꣯ अव꣣स्य꣡वः꣢ ॥८००॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रे अग्ना नमो बृहत्सुवृक्तिमेरयामहे । धिया धेना अवस्यवः ॥८००॥
इ꣡न्द्रे꣢꣯ । अ꣣ग्ना꣢ । न꣡मः꣢꣯ । बृ꣣ह꣢त् । सु꣣वृक्ति꣢म् । सु꣣ । वृक्ति꣢म् । आ । ई꣣रयामहे । धिया꣢ । धे꣡नाः꣣ । अ꣣वस्य꣡वः꣢ ॥८००॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में इन्द्र और अग्नि के नाम से जीवात्मा-परमात्मा का विषय वर्णित है।
(अवस्यवः) रक्षा के इच्छुक, हम लोग (इन्द्रे)जीवात्मा को लक्ष्य करके (बृहत्) महान् (नमः) नमस्कार को, (सुवृक्तिम्) निर्दोष क्रिया को और (धिया) ध्यान तथा बुद्धि के साथ (धेनाः) स्तुतिरूप वाणियों को (आ ईरयामहे) प्रेरित करते हैं ॥१॥
परमात्मा की उपासना के लिए और जीवात्मा को उद्बोधन देने के लिए नमस्कार, गुणवर्णनरूप स्तुति और तदनुरूप क्रिया निरन्तर अपेक्षित होती है। पुरुषार्थ के बिना केवल नमस्कार से या स्तुति से कुछ भी नहीं सिद्ध होता ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रेन्द्राग्निनाम्ना जीवात्मपरमात्मविषयमाह।
(अवस्यवः) रक्षणेच्छवः वयम् (इन्द्रे) जीवात्मानमधिकृत्य(अग्ना) परमात्मानमधिकृत्य च (बृहत्) महत् (नमः) नमस्कारम्, (सुवृक्तिम्) निर्दोषां क्रियाम्। [सुष्ठु वृक्तयो दोषवर्जनानि यस्यां तां क्रियाम्१। वृजी वर्जने] (धिया) ध्यानेन बुद्ध्या च सह (धेनाः) स्तुतिरूपा वाचश्च। [धेना इति वाङ्नाम। निघं० १।११।] (आ ईरयामहे)प्रेरयामः ॥१॥
परमात्मानमुपासितुं जीवात्मानमुद्बोधयितुं च नमस्कारो गुणवर्णनरूपा स्तुतिः तदनुरूपा क्रिया च सततमपेक्ष्यते। पुरुषार्थ विना केवलं नमस्कारेण स्तुत्या वा न किमपि सिद्ध्यति ॥१॥