इ꣡न्द्रो꣢ दी꣣र्घा꣢य꣣ च꣡क्ष꣢स꣣ आ꣡ सूर्य꣢꣯ꣳ रोहयद्दि꣣वि꣢ । वि꣢꣫ गोभि꣣र꣡द्रि꣢मैरयत् ॥७९९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यꣳ रोहयद्दिवि । वि गोभिरद्रिमैरयत् ॥७९९॥
इ꣡न्द्रः꣢꣯ । दी꣣र्घा꣡य꣢ । च꣡क्ष꣢꣯से । आ । सू꣡र्य꣢꣯म् । रो꣣हयत् । दिवि꣢ । वि । गो꣡भिः꣢꣯ । अ꣡द्रि꣢꣯म् । अ । द्रि꣣म् । ऐरयत् ॥७९९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जीवात्मा के भी अधिष्ठाता जगदीश्वर की महिमा का वर्णन है।
(इन्द्रः) सारे संसार को उत्पन्न करनेवाले परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर ने (दीर्घाय) दीर्घ (चक्षसे) प्रकाश के लिए (दिवि) द्युलोक में (सूर्यम्) सूर्य को (आरोहयत्) चढ़ाया हुआ है। वही (गोभिः) सूर्य-किरणों से (अद्रिम्) बादल को (वि ऐरयत्) विकम्पित करता है, बरसाता है ॥४॥
जगदीश्वर की ही यह महिमा है कि वह सूर्य को रच कर उसके द्वारा पदार्थों को प्रकाशित करता, दिन-रात-पक्ष-मास-ऋतु-अयन-वर्ष के चक्र को चलाता, बादल बनाता, वर्षा करता और प्राण-प्रदान आदि कार्य करता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मनोऽप्यधिष्ठातुर्जगदीश्वरस्य महिमानमाह।
(इन्द्रः) सकलजगदुत्पादकः परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (दीर्घाय) विपुलाय (चक्षसे) प्रकाशाय (दिवि) द्युलोके (सूर्यम्) आदित्यम् (आ रोहयत्) आरूढं कृतवान्। स एव (गोभिः) सूर्यरश्मिभिः। [गावः इति रश्मिनाम। निघं० १।५।] (अद्रिम्) मेघम् [अद्रिरिति मेघनाम। निघं० १।१०।] (वि ऐरयत्) विकम्पयति, वर्षति। [वि पूर्वः ईर गतौ कम्पने च अदादिः, ण्यन्तः] ॥४॥२
जगदीश्वरस्यैवायं महिमा यत् स सूर्यं विरच्य तद्द्वारा वस्तुप्रकाशनमहोरात्रपक्षमासऋत्वयनसंवत्सरचक्रचालनं मेघनिर्माणं वृष्टिं प्राणप्रदानादिकं च कार्यं करोति ॥४॥