मि꣣त्रं꣢ व꣣य꣡ꣳ ह꣢वामहे꣣ व꣡रु꣢ण꣣ꣳ सो꣡म꣢पीतये । या꣢ जा꣣ता꣢ पू꣣त꣡द꣢क्षसा ॥७९३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मित्रं वयꣳ हवामहे वरुणꣳ सोमपीतये । या जाता पूतदक्षसा ॥७९३॥
मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । व꣣य꣢म् । ह꣣वामहे । व꣡रु꣢꣯णम् । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये । या꣢ । जा꣡ता꣢ । पू꣣त꣡द꣢क्षसा । पू꣣त꣢ । द꣣क्षसा ॥७९३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में प्राण-उदान तथा ब्रह्म-क्षत्र विषयों का वर्णन है।
(वयम्) हम लोग (सोमपीतये) यश की रक्षा के लिए (मित्रम्) बाहर और अन्दर स्थित जीवन-हेतु प्राण को अथवा ब्रह्म-बल को, (वरुणम्) ऊर्ध्वगति तथा बल के हेतु उदान को अथवा क्षत्र-बल को (हवामहे) पुकारते हैं, ग्रहण करते हैं, (या) जो (पूतदक्षसा) पवित्र बलवाले अथवा बल को पवित्र करनेवाले (जाता) हुए हैं ॥१॥
सब लोगों को चाहिए कि शरीर में प्राणनक्रिया के हेतु प्राण को और ऊर्ध्वगति के हेतु उदान को तथा राष्ट्र में ब्रह्म-बल और क्षत्र-बल को बढ़ाकर शरीर तथा राष्ट्र के स्वास्थ्य को उन्नत करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ प्राणोदानब्रह्मक्षत्रविषयमाह।
(वयम्) जनाः (सोमपीतये) यशोरक्षणाय। [यशो वै सोमः श० ४।२।४।९।] (मित्रम्) बहिरभ्यन्तरस्थं जीवनहेतुं प्राणं, ब्रह्मबलं वा, (वरुणम्) ऊर्ध्वगमनबलहेतुम् उदानं, क्षत्रबलं वा। [प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ श० १।८।३।१२, ब्रह्मैव मित्रः। श० ४।१।४।१, क्षत्रं वै वरुणः। श० २।५।२।६।] (हवामहे) आह्वयामः, गृह्णीमः, (या) यौ (पूतदक्षसा) पूतदक्षसौ पवित्रबलौ, बलस्य पवित्रकर्तारौ वा (जाता) जातौ स्तः। [सर्वत्र, ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेराकारादेशः।] ॥१॥१
शरीरे प्राणनक्रियाहतुं प्राणम् ऊर्ध्वगमनहेतुमुदानं च संवर्द्ध्य, राष्ट्रे च ब्रह्मबलं क्षत्रबलं च संवर्द्ध्य शरीरस्य राष्ट्रस्य च स्वास्थ्यं सर्वे जना उन्नयन्तु ॥१॥