अ꣡ग्ने꣢ दे꣣वा꣢ꣳ इ꣣हा꣡ व꣢ह जज्ञा꣣नो꣢ वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषे । अ꣢सि꣣ हो꣡ता꣢ न꣣ ई꣡ड्यः꣢ ॥७९२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्ने देवाꣳ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः ॥७९२॥
अ꣡ग्ने꣢꣯ । दे꣣वा꣢न् । इ꣣ह꣢ । आ । व꣣ह । जज्ञानः꣢ । वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषे । वृ꣣क्त꣢ । ब꣡र्हिषे । अ꣡सि꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । नः꣣ । ई꣡ड्यः꣢꣯ ॥७९२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा, आचार्य और राजा को सम्बोधन है।
हे (अग्ने) अग्रनायक तेजस्वी परमात्मन्, आचार्य और राजन् ! (वृक्तबर्हिषे) उपासना-यज्ञ, विद्या-यज्ञ और राष्ट्रसेवा-यज्ञ के हेतु जिसने आसन बिछा लिया है, ऐसे मनुष्य के लिए (जज्ञानः) प्रकट होते हुए अर्थात् अपने दर्शन देते हुए आप (इह) इस उपासना-यज्ञ, विद्या-यज्ञ और राष्ट्र-यज्ञ में (देवान्) दिव्यगुणों को, विद्वानों को और राष्ट्रसेवकों को (आवह) उत्पन्न कीजिए। आप (होता) सुख, संपत्ति, विद्या, सदाचार आदि के दाता और (नः) हमारे (ईड्यः) स्तुति-योग्य (असि) हो ॥३॥
जैसे जगदीश्वर उपासना-यज्ञ में स्तोताओं के हृदय में दिव्यगुण उत्पन्न करता है, वैसे ही आचार्य विद्या-यज्ञ में विद्वान् जनों को तथा राजा राष्ट्र-यज्ञ में राष्ट्र-सेवकों को उत्पन्न करे ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानमाचार्यं नृपतिं च सम्बोधयति।
हे (अग्ने) अग्रणीः तेजस्विन् परमात्मन् आचार्य नृपते वा ! (वृक्तबर्हिषे) उपासनायज्ञार्थं विद्यायज्ञार्थं राष्ट्रसेवायज्ञार्थं वा आस्तीर्णासनाय जनाय। [वृक्तं त्यक्तम् आस्तीर्णं बर्हिः दर्भासनं येन तस्मै। वृक्तबर्हिषः इति ऋत्विड्नामसु पठितम्। निघं० ३।१८।] (जज्ञानः) प्रादुर्भवन्, स्वदर्शनं प्रयच्छन्। [जनी प्रादुर्भावे दिवादिः, लिटः कानच्।] त्वम् (इह) उपासनायज्ञे विद्यायज्ञे राष्ट्रयज्ञे वा (देवान्) दिव्यगुणान् विदुषः राष्ट्रसेवकान् वा (आ वह) जनय। त्वम् (होता) सुखसम्पद्विद्यासद्वृत्तादीनां दाता, (नः) अस्माकम् (ईड्यः) स्तुत्यश्च (असि) विद्यसे ॥३॥२
यथा जगदीश्वर उपासनायज्ञे स्तोतॄणां हृदये दिव्यगुणान् जनयति तथैवाचार्यो विद्यायज्ञे विद्वज्जनान् राजा च राष्ट्रयज्ञे राष्ट्रसेवकान् जनयेत् ॥३॥