वृ꣢षा꣣ ह्य꣡सि꣢ भा꣣नु꣡ना꣢ द्यु꣣म꣡न्तं꣢ त्वा हवामहे । प꣡व꣢मान स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् ॥७८४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वृषा ह्यसि भानुना द्युमन्तं त्वा हवामहे । पवमान स्वर्दृशम् ॥७८४॥
वृ꣡षा꣢꣯ । हि । अ꣡सि꣢꣯ । भा꣣नु꣡ना꣢ । द्यु꣣म꣡न्त꣢म् । त्वा꣣ । हवामहे । प꣡वमा꣢꣯न । स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् । स्वः꣣ । दृ꣡श꣢꣯म् ॥७८४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४८० क्रमाङ्क पर परमात्मा के पक्ष में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जगदीश्वर तथा राजा का आह्वान है।
हे (पवमान) पवित्रता देनेवाले जगदीश्वर और राजन् ! आप (वृषा) हि) सचमुच सद्गुण, विद्या, सुराज्य, धन आदि की वर्षा करनेवाले (असि) हो। (भानुना) तेज से (द्युमन्तम्) देदीप्यमान, (स्वर्दृशम्) मोक्ष के आनन्द वा लौकिक सुख का दर्शन करानेवाले (त्वा) आपको, हम (हवामहे) पुकारते हैं ॥१॥
जैसे उपासना किया हुआ परमेश्वर हृदय को पवित्र करके उसमें दिव्य ऐश्वर्यों को बरसाता है और मोक्ष का आनन्द देता है, वैसे ही राज्य में राजा राष्ट्रवासियों के भ्रष्टाचार को दूर करके, पवित्र आचरण का प्रचार करके, विविध ऐश्वर्यों की वर्षा करके प्रजाओं को सुख प्रदान करे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४८० क्रमाङ्के परमात्मपक्षे व्याख्याता। अत्र जगदीश्वरं नरेश्वरं चाह्वयति ॥
हे (पवमान) पवित्रतादायक जगदीश्वर राजन् वा ! त्वम् (वृषा हि) सद्गुणविद्यासुराज्यधनादिवर्षकः खलु (असि) वर्तसे। (भानुना) तेजसा (द्युमन्तम्) देदीप्यमानम्, (स्वर्दृशम्) मोक्षानन्दस्य लौकिकसुखस्य वा दर्शकम् (त्वा) त्वाम्, वयम् (हवामहे) आह्वयामः ॥१॥
यथोपासितः परमेश्वरो हृदयस्य पवित्रतां सम्पाद्य तत्र दिव्यान्यैश्वर्याणि वर्षति मोक्षानन्दं च प्रयच्छति तथैव राज्ये नृपती राष्ट्रवासिनां भ्रष्टाचारं दूरीकृत्य पवित्राचरणं प्रचार्य विविधान्यैश्वर्याणि वर्षित्वा प्रजाभ्यः सुखं प्रयच्छेत् ॥१॥