य꣡स्य꣢ ते स꣣ख्ये꣢ व꣣य꣡ꣳ सा꣢स꣣ह्या꣡म꣢ पृतन्य꣣तः꣢ । त꣡वे꣢न्दो द्यु꣣म्न꣡ उ꣢त्त꣣मे꣢ ॥७७९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यस्य ते सख्ये वयꣳ सासह्याम पृतन्यतः । तवेन्दो द्युम्न उत्तमे ॥७७९॥
य꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । सख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । व꣣य꣢म् । सा꣣सह्या꣡म꣢ । पृ꣣तन्यतः꣢ । त꣡व꣢꣯ । इ꣣न्दो । द्युम्ने꣢ । उ꣣त्तमे꣢ ॥७७९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उन्हीं से प्रार्थना की गयी है।
हे (इन्दो) तेजस्वी जगदीश्वर, आचार्य और राजन् ! (यस्य ते) जिन आपकी (सख्ये) मित्रता में (वयम्) हम हैं, वे हम लोग (पृतन्यतः) सेना से चढ़ाई करनेवाले आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को (सासह्याम)अतिशय रूप से बार-बार पराजित कर देवें और (तव) आपके दिये हुए (उत्तमे) उत्तम (दयुम्ने) यश में,हम रहें ॥२॥
सबको चाहिए कि परमेश्वर की उपासना करके, गुरु को शिष्यभाव से प्राप्त करके और राजा की सहायता पाकर सब काम, क्रोध आदि आन्तरिक रिपुओं को एवं बाह्य शत्रुओं को निर्मूल करके यशस्वी बनें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तानेव प्रार्थयते।
हे (इन्दो) तेजस्विन् जगदीश्वर आचार्य नृपते वा ! (यस्य ते) यस्य तव (सख्ये) सखित्वे (वयम्) वयं स्मः, ते वयम् (पृतन्यतः) पृतनया अभिगच्छतः आन्तरान् बाह्यांश्च शत्रून् (सासह्याम) अतिशयेन पुनः पुनः पराभवेम। अपि च (तव) त्वदीये, त्वया प्रदत्ते (उत्तमे) उत्कृष्टतमे (द्युम्ने) यशसि, स्याम इति शेषः ॥२॥
सर्वैः परमेश्वरमुपास्य, गुरुं शिष्यत्वेनोपगम्य, नृपतेश्च साहाय्यं प्राप्य सर्वान् कामक्रोधादीनान्तरान् बाह्यांश्च रिपून् निर्मूल्य यशस्विभिर्भाव्यम् ॥२॥