अ꣣या꣡ प꣢वस्व देव꣣यू꣡ रेभ꣢꣯न्प꣣वि꣢त्रं꣣ प꣡र्ये꣢षि वि꣣श्व꣡तः꣢ । म꣢धो꣣र्धा꣡रा꣢ असृक्षत ॥७७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अया पवस्व देवयू रेभन्पवित्रं पर्येषि विश्वतः । मधोर्धारा असृक्षत ॥७७२॥
अ꣣या꣢ । प꣣वस्व । देवयुः꣢ । रे꣡भ꣢꣯न् । प꣣वि꣡त्र꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । ए꣣षि । वि꣡श्व꣢तः । म꣡धोः꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯ । अ꣣सृक्षत ॥७७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा में परमात्मा का तथा उसके आनन्द-रस का वर्णन है।
हे पवित्र करने हारे रसागार परमात्मन् ! (देवयुः) स्तोता उपासक से प्रीति करनेवाले आप (अया) इस आनन्दधारा के साथ (पवस्व) प्रवाहित होवो। (रेभन्) उपदेश करते हुए आप (विश्वतः) सब ओर से (पवित्रम्) पवित्र अन्तःकरण में (पर्येषि) आते हो। आपके पास से (मधोः) मधुर आनन्द की (धाराः)धाराएँ (असृक्षत) छूटती हैं ॥१॥
आनन्द-रस के भण्डार परमेश्वर से प्राप्त आनन्द-धाराएँ उपासक को कृत-कृत्य कर देती हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमं परमात्मानं तदीयम् आनन्दरसं च वर्णयति।
हे पवमान रसागार सोम परमात्मन् ! (देवयुः) देवं स्तोतारम् उपासकं कामयमानः त्वम् (अया) अनया आनन्दधारया। [अया पवस्व धारया। साम० ४९३ इति वचनात्।] (पवस्व) परिस्रव। (रेभन्) उपदिशन् त्वम्। [रेभृ शब्दे, भ्वादिः।] (विश्वतः) सर्वतः (पवित्रम्)परिपूतम् अन्तःकरणम् (पर्येषि) परि प्राप्नोषि। त्वत्सकाशात् (मधोः) मधुनः, मधुरस्य आनन्दस्य (धाराः) प्रवाहसन्ततयः (असृक्षत) सृज्यन्ते ॥१॥
आनन्दरसागारात् परमेश्वरात् प्राप्ता आनन्दधारा उपासकं कृतकृत्यं कुर्वन्ति ॥१॥