आ꣡दीं꣢ त्रि꣣त꣢स्य꣣ यो꣡ष꣢णो꣣ ह꣡रि꣢ꣳ हिन्व꣣न्त्य꣡द्रि꣢भिः । इ꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रा꣢य पी꣣त꣡ये꣢ ॥७७१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आदीं त्रितस्य योषणो हरिꣳ हिन्वन्त्यद्रिभिः । इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥७७१॥
आ꣢त् । ई꣣म् । त्रित꣡स्य꣢ । यो꣡ष꣢꣯णः । ह꣡रि꣢꣯म् । हि꣣न्वन्ति । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पी꣣त꣡ये꣢ ॥७७१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर ब्रह्मानन्द-रस का विषय है।
(आत्) और तब (त्रितस्य) ज्ञान-कर्म-उपासना इन तीनों से युक्त जीवात्मा की (योषणः) पत्नियों के समान सहचारिणी बुद्धियाँ (इन्द्राय) जीवात्मा के (पीतये)पान के लिए (ईम्) इस (इन्दुम्) भिगोनेवाले (हरिम्)पापहर्ता ब्रह्मानन्दरस को (अद्रिभिः) विदीर्ण न होनेवाले मनःसंकल्पों द्वारा (हिन्वन्ति) जीवात्मा में पहुँचाती हैं ॥३॥
जब ब्रह्मानन्द-रस जीवात्मा में व्याप जाता है, तब उपासक को परम माहात्म्य का अनुभव होता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः ब्रह्मानन्दरसविषयमाह।
(आत्) अथ (त्रितस्य) त्रिभिर्ज्ञानकर्मोपासनैः युक्तस्य जीवात्मनः (योषणः२) योषा इव सहचारिण्यो मेधाः (इन्द्राय) जीवात्मने (पीतये) पानाय (ईम्) एनम् (इन्दुम्) क्लेदकम् (हरिम्) पापहारिणं ब्रह्मानन्दरसम्(अद्रिभिः) न विदारयितुं शक्यैः मनःसंकल्पैः(हिन्वन्ति) जीवात्मनि प्रेरयन्ति। [हि गतौ वृद्धौ च स्वादिः] ॥३॥
यदा ब्रह्मानन्दरसो जीवात्मानं व्याप्नोति तदोपासकः परमं माहात्म्यमनुभवति ॥३॥