प्र꣡ सो꣢म दे꣣व꣡वी꣢तये꣣ सि꣢न्धु꣣र्न꣡ पि꣢प्ये꣣ अ꣡र्ण꣢सा । अ꣣ꣳशोः꣡ पय꣢꣯सा मदि꣣रो꣡ न जागृ꣢꣯वि꣣र꣢च्छा꣣ को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥७६७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र सोम देववीतये सिन्धुर्न पिप्ये अर्णसा । अꣳशोः पयसा मदिरो न जागृविरच्छा कोशं मधुश्चुतम् ॥७६७॥
प्र꣢ । सो꣣म । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । सि꣡न्धुः꣢꣯ । न । पि꣣प्ये । अ꣡र्ण꣢꣯सा । अ꣣ꣳशोः꣢ । प꣡य꣢꣯सा । म꣣दिरः꣢ । न । जा꣡गृ꣢꣯विः । अ꣡च्छ꣢꣯ । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् ॥७६७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५१४ पर जीवात्मा के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ परमात्मा और उपासक का विषय वर्णित करते हैं।
हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! आप (देववीतये) उपासक के हृदय में दिव्य गुण उत्पन्न करने के लिए (अर्णसा) आनन्द-रस से (प्र पिप्ये) भरपूर हो, (अर्णसा) जल से (सिन्धुः न) जैसे बादल भरपूर होता है। आगे उपासक के प्रति कहते हैं—हे उपासक ! (अंशोः) अंशुमाली सूर्य के (पयसा) वर्षाजल से (मदिरः) हर्ष को प्राप्त किसान के समान (जागृविः) जागरूक हुआ तू (मधुश्चुतम्) आनन्दरूप मधु को चुआनेवाले (कोशम्) आनन्द के निधि परमात्मा के (अच्छ) अभिमुख हो ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥
आनन्द-रस की प्राप्ति के लिए आनन्द-रस के खजाने परमेश्वर का ही मनुष्यों को ध्यान करना चाहिए, भौतिक प्रतिमा आदियों के पूजने से क्या लाभ है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५१४ क्रमाङ्के जीवात्मविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मन उपासकस्य च विषयमाह।
हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! त्वम् (देववीतये) देवानां दिव्यगुणानां वीतिः उपासकस्य हृदये प्रजननं तदर्थाय (अर्णसा) आनन्दरसेन (प्र पिप्ये) आप्यायितोऽसि, (अर्णसा) जलेन (सिन्धुः न) पर्जन्यो यथा आप्यायते। अथ उपासकं प्रत्युच्यते—हे उपासक ! (अंशोः) अंशुमालिनः सूर्य्यस्य। [अत्र अंशोः अंशुमति लक्षणा। यद्वा मतुपो लुक्।] (पयसा) वृष्टिजलेन (मदिरः) न हृष्टः कर्षकः इव (जागृविः) जागरूकः त्वम् (मधुश्चुतम्) आनन्दमधुस्राविणम् (कोशम्) आनन्दनिधिं परमात्मानम् (अच्छ) अभिमुखो भव ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः।
आनन्दरसलाभायानन्दरसनिधिः परमेश्वर एव जनैर्ध्यातव्यः, किं भौतिकानां प्रतिमादीनां पूजनेन ॥१॥