दु꣣हानः꣢ प्र꣣त्न꣡मित्पयः꣢꣯ प꣣वि꣢त्रे꣣ प꣡रि꣢ षिच्यसे । क्र꣡न्दं꣢ दे꣣वा꣡ꣳ अ꣢जीजनः ॥७६०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)दुहानः प्रत्नमित्पयः पवित्रे परि षिच्यसे । क्रन्दं देवाꣳ अजीजनः ॥७६०॥
दुहानः꣢ । प्र꣡त्न꣢म् । इत् । प꣡यः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣च्यसे । क्र꣡न्द꣢꣯न । दे꣣वा꣢न् । अ꣣जीजनः ॥७६०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
हे रस के भण्डार परमात्मारूप सोम ! (प्रत्नम् इत्) सनातन (पयः) आनन्द-रस को (दुहानः) दुहकर देते हुए, आप (पवित्रे) पवित्र हृदय में (परिषिच्यसे) चारों ओर सींचे जाते हो। (क्रन्दन्) मानो कल-कल शब्द करते हुए, आप (देवान्) दिव्य तरंगों को (अजीजनः) उत्पन्न करते हो ॥३॥
परमात्मा की स्तुति से उपासक के हृदय में ब्रह्मानन्द के प्रवाह बहने लगते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
हे रसागार परमात्मसोम ! (प्रत्नम् इत्) पुराणम् एव (पयः) आनन्दरसम् (दुहानः) प्रयच्छन्, त्वम् (पवित्रे) परिपूते हृदये (परिषिच्यसे) प्रवाह्यसे। (क्रन्दन्) कल-कलशब्दं कुर्वन्निव त्वम् हृदये (देवान्) दिव्यतरङ्गान् (अजीजनः) जनयसि ॥३॥
परमात्मस्तवनादुपासकस्य हृदये ब्रह्मानन्दप्रवाहाः प्रवहन्ति ॥३॥