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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ए꣣ष꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ म꣡न्म꣢ना दे꣣वो꣢ दे꣣वे꣢भ्य꣣स्प꣡रि꣢ । क꣣वि꣡र्विप्रे꣢꣯ण वावृधे ॥७५९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एष प्रत्नेन मन्मना देवो देवेभ्यस्परि । कविर्विप्रेण वावृधे ॥७५९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए꣣षः꣢ । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । म꣡न्म꣢꣯ना । दे꣣वः꣢ । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । क꣡विः꣢ । वि꣡प्रे꣢꣯ण । वि । प्रे꣣ण । वावृधे ॥७५९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 759 | (कौथोम) 1 » 2 » 17 » 2 | (रानायाणीय) 2 » 5 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषः) यह (देवः) प्रकाशक, (कविः) बुद्धिमान् परमात्मारूप सोम (प्रत्नेन मन्मना) पुरातन वैदिक स्तोत्र द्वारा (देवेभ्यः) दिव्य गुणों के प्रदान के लिए (विप्रेण) बुद्धिमान् विद्वान् उपासक के द्वारा (परि वावृधे) चारों ओर बढ़ता है ॥२॥ परमात्मा में वस्तुतः बढ़ना रूप धर्म न होने से यहाँ असम्बन्ध में सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

उपासक से वेदमन्त्रों द्वारा भली-भाँति उपासना किया गया परमात्मा सर्वत्र प्रचार पाकर मानो बढ़ता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषः) अयम् (देवः) प्रकाशकः (कविः) मेधावी सोमः परमात्मा (प्रत्नेन मन्मना२) पुराणेन वैदिकस्तोत्रेण (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः, दिव्यगुणप्रदानाय इत्यर्थः (विप्रेण) मेधाविना विदुषा उपासकेन, तद्द्वारा इत्यर्थः (परि वावृधे) परितो वर्धते ॥२॥ अत्र परमात्मनि वस्तुतो वृद्धेरभावाद् असम्बन्धे सम्बन्धरूपोऽतिशयोक्तिरलङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

उपासकेन वेदमन्त्रद्वारा सम्यगुपासितः परमात्मा सर्वत्र प्रचारं प्राप्य वृद्धिंगत इव भवति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४२।२, ‘धार॑या पवते सु॒तः’ इति तृतीयः पादः। २. प्रत्नेन पुराणेन मन्मना साधनेन स्तोत्रेण युक्तः—इति सा०। मन्म बलमभिधीयते, बलेन—इति वि०।