अ꣣य꣡ꣳ सूर्य꣢꣯ इवोप꣣दृ꣢ग꣣य꣡ꣳ सरा꣢꣯ꣳसि धावति । स꣣प्त꣢ प्र꣣व꣢त꣣ आ꣡ दिव꣢꣯म् ॥७५६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अयꣳ सूर्य इवोपदृगयꣳ सराꣳसि धावति । सप्त प्रवत आ दिवम् ॥७५६॥
अ꣣य꣢म् । सू꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । उपदृ꣢क् । उ꣣प । दृ꣢क् । अ꣣य꣢म् । स꣡रा꣢꣯ꣳसि । धा꣣वति । स꣣प्त꣢ । प्र꣣व꣡तः꣢ । आ । दि꣡व꣢꣯म् ॥७५६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
(अयम्) यह सोम अर्थात् सौम्य परमात्मा (सूर्यः इव) सूर्य के समान (उपदृक्) दर्शानेवाला है। (अयम्) यह सौम्य परमात्मा (सरांसि) हृदय-सरोवरों में (धावति) शीघ्र पहुँचता है तथा उन्हें धोकर शुद्ध कर देता है। यह सौम्य परमात्मा (सप्त) सात (प्रवतः) ज्ञानेन्द्रियों सहित मन और बुद्धि को और (दिवम्) तेजस्वी जीवात्मा को (आ) प्राप्त होता है तथा उन्हें धोकर शुद्ध करता है ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥
जैसे सूर्य सब वस्तुओं को दिखाता है, अपनी किरणों से बादलरूप सरोवरों में पहुँचता है, भूमि-चन्द्रमा आदि सात ग्रहों-उपग्रहों को अपने प्रकाश से शुद्ध करता है और द्युलोक में स्थित होता है, वैसे ही परमात्मा सबको दृष्टि प्रदान करनेवाला, सबके हृदय-सरोवरों में पहुँचनेवाला, देहवर्ती सात प्राणों को शुद्ध करनेवाला और आत्मपुरी में स्थित होनेवाला है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(अयम्) एषः सोमः सौम्यः परमात्मा (सूर्यः इव) आदित्यः इव (उपदृक्) उपदर्शयिता अस्ति। (अयम्) एषः सौम्यः परमात्मा (सरांसि२) हृदयसरोवरान् (धावति) द्रुतं गच्छति, शोधयति वा। [धावु गतिशुद्ध्योः भ्वादिः।] अयम् (सप्त) सप्तसंख्यकान् (प्रवतः३) ज्ञानेन्द्रियसहितान् मनोबुद्धिलोकान्, (दिवम्) द्योतमानम् जीवात्मानं च (आ) आधावति आगच्छति शोधयति वा ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
यथा सूर्यः सर्वेषां पदार्थानामुपदर्शको भवति, स्वकिरणैः मेघसरोवरान् गच्छति, भूमिचन्द्रादीन् सप्त ग्रहोपग्रहान् स्वप्रकाशेन शोधयति, दिवि तिष्ठति तथैव परमात्मा सर्वेषां दृष्टिप्रदाता, हृदयसरांसि गन्ता, देहवर्तिनः सप्त प्राणान् शोधयिता, आत्मपुरि च स्थाता वर्तते ॥२॥