स꣡ प्र꣢थ꣣मे꣡ व्यो꣢मनि दे꣣वा꣢ना꣣ꣳ स꣡द꣢ने वृ꣣धः꣢ । सु꣣पारः꣢ सु꣣श्र꣡व꣢स्तमः꣣ स꣡म꣢प्सु꣣जि꣢त् ॥७४७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स प्रथमे व्योमनि देवानाꣳ सदने वृधः । सुपारः सुश्रवस्तमः समप्सुजित् ॥७४७॥
सः । प्र꣣थमे꣢ । व्यो꣡म꣢नि । वि । ओ꣣मनि । दे꣣वा꣡ना꣢म् । स꣡द꣢꣯ने । वृ꣢धः꣡ । सु꣣पा꣢रः । सु꣣ । पारः꣡ । सु꣣श्र꣡व꣢स्तमः । सु꣣ । श्र꣡व꣢꣯स्तमः । सम् । अ꣣प्सुजि꣣त् । अ꣣प्सु । जि꣢त् ॥७४७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।
(सः) वह विद्याप्रदाता आचार्य (प्रथमे) श्रेष्ठ (व्योमनि) आकाश के समान व्यापक ओंकारपदवाच्य ब्रह्म में स्थित हुआ (देवानां सदने) विद्वानों के सदन गुरुकुल में रहता हुआ (वृधः) छात्रों की उन्नति करानेवाला, (सुपारः) विद्या के समुद्र से पार करनेवाला, (सुश्रवस्तमः) अत्यन्त यशस्वी, (अप्सुजित्) व्याप्त विद्याओं में तथा शुभकर्मों में अन्यों को जीत लेनेवाला अर्थात् अन्यों की अपेक्षा अधिक पारंगत है। मैं (सम्) उसकी भली-भाँति स्तुति करता हूँ ॥२॥
सुयोग्य, विद्या के सागर, कर्मयोगी आचार्य को पाकर विद्यार्थी भी वैसे ही बनते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(सः) असौ विद्यादाता आचार्यः (प्रथमे) श्रेष्ठे (व्योमनि) व्योमवद् व्यापके ओङ्कारपदवाच्ये (ब्रह्मणि२) स्थितः (देवानां सदने) विदुषां गृहे, गुरुकुले इत्यर्थः, विद्यमानः (वृधः) छात्राणां वर्धयिता, (सुपारः)विद्यार्णवात् सम्यक् पारयिता, (सुश्रवस्तमः)यशस्वितमः। [शोभनं श्रवः यशो यस्य स सुश्रवाः, अतिशयेन सुश्रवाः सुश्रवस्तमः।] (अप्सुजित्) अप्सु व्याप्तासु विद्यासु३ शुभकर्मसु च अन्यान् जयतीति तादृशः अस्ति, अहं तम् (सम्) सम्यक् स्तौमि ॥२॥
सुयोग्यं विद्यार्णवं कर्मयोगिनमाचार्यं प्राप्य विद्यार्थिनोऽपि तादृशा एव जायन्ते ॥२॥