इ꣡न्द्र꣢ सु꣣ते꣢षु꣣ सो꣣मे꣢षु꣣ क्र꣡तुं꣢ पुनीष उ꣣꣬क्थ्य꣢꣯म् । वि꣣दे꣢ वृ꣣ध꣢स्य꣣ द꣡क्ष꣢स्य म꣣हा꣢ꣳ हि षः ॥७४६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्र सुतेषु सोमेषु क्रतुं पुनीष उक्थ्यम् । विदे वृधस्य दक्षस्य महाꣳ हि षः ॥७४६॥
इ꣡न्द्र꣢꣯ । सु꣣ते꣡षु꣢ । सो꣡मे꣢꣯षु । क्र꣡तु꣢꣯म् । पु꣣नीषे । उ꣣क्थ्य꣢꣯म् । वि꣣दे꣢ । वृ꣣ध꣡स्य꣢ । द꣡क्ष꣢꣯स्य । म꣣हा꣢न् । हि । सः ॥७४६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३८१ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के महत्व के विषय में हो चुकी है। यहाँ आचार्य का महत्त्व वर्णित है।
हे (इन्द्र) विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्यवर ! आप (सोमेषु) ज्ञानरसों के (सुतेषु) अभिषुत करने के साथ-साथ, हम विद्यार्थियों के (क्रतुम्) कर्म को भी (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय रूप में (पुनीषे) पवित्र करते हो। (वृधस्य) बढ़े हुए (दक्षस्य) उत्साह के (विदे) प्राप्त कराने के लिए (सः) वह आप (महान् हि) बड़े महत्त्वपूर्ण हो ॥१॥
जैसे विद्याप्रदान करना आचार्य का कर्तव्य है, वैसे पवित्र आचार का प्रदान करना भी कर्तव्य है। कहा भी है—आचार्य को आचार्य इस कारण कहते हैं क्योंकि वह आचार का ग्रहण कराता है (निरु० १|४) ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३८१ क्रमाङ्के परमेश्वरमहत्त्वविषये व्याख्याता। अत्राचार्यस्य महत्त्वं वर्णयति।
हे (इन्द्र) विद्यैश्वर्यसम्पन्न आचार्यवर ! त्वम् (सोमेषु) ज्ञानरसेषु (सुतेषु) अभिषुतेषु, विद्यार्थिनाम् अस्माकम् (क्रतुम्) कर्म अपि (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयं यथा स्यात्तथा (पुनीषे) पवित्रयसि। (वृधस्य) वृद्धस्य (दक्षस्य)उत्साहस्य। [दक्षतिः उत्साहकर्मा। निरु० १।७।] (विदे) लम्भनार्थम् (सः) स त्वम् (महान् हि) महत्त्ववान् खलु वर्तसे ॥१॥
यथा विद्याप्रदानमाचार्यस्य कर्त्तव्यं तथैव पवित्राचारप्रदानमपि। यथोक्तम्—आचार्यः कस्मात् ? आचारं ग्राहयतीति (निरु० १।४) ॥१॥