आ꣡ घा꣢ गम꣣द्य꣢दि꣣ श्र꣡व꣢त्सह꣣स्रि꣡णी꣢भिरू꣣ति꣡भिः꣢ । वा꣡जे꣢भि꣣रु꣡प꣢ नो꣣ ह꣡व꣢म् ॥७४५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः । वाजेभिरुप नो हवम् ॥७४५॥
आ । घ꣣ । गमत् । य꣡दि꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯त् । स꣣हस्री꣡णी꣢भिः । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । वा꣡जे꣢꣯भिः । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡वम्꣢꣯ ॥७४५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः उसी विषय का वर्णन है।
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (इन्द्र) जगदीश्वर (यदि) यदि (श्रवत्) हमारी पुकार को सुन ले, तो वह (घ) अवश्य ही (सहस्रिणीभिः) हजारों (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ और (वाजेभिः) बलों तथा ऐश्वर्यों के साथ (नः) हमारी (हवम्) पुकार पर (उप आ गमत्) हमारे समीप आ जाए ॥ द्वितीय—गुरु-शिष्य के पक्ष में। (यदि) यदि, यह विद्यार्थी (श्रवत्) गुरु-मुख से शास्त्रों को सुन चुकेगा, तो (सहस्रिणीभिः) सहस्रों (ऊतिभिः) विद्याजन्य तृप्तियों तथा (वाजेभिः) आत्मबलों के साथ (नः) हम नागरिकों के (हवम्) उत्सव आदि समारोह में (घ) निश्चय ही (उप आ गमत्) आयेगा और अपने विद्वत्तापूर्ण विचारों से हमें कृतार्थ करेगा ॥३॥
हृदय से निकली हुई पुकार को जगदीश्वर अवश्य सुनता है। सुयोग्य गुरुओं के सान्निध्य में गुरुकुल में निवास करनेवाले विद्यार्थी विद्वान् होकर समावर्तन संस्कार के पश्चात् जब बाहर आयें, तब सबको उपदेश देकर श्रेष्ठ मार्ग में प्रवृत्त करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
प्रथमः—परमेश्वरपरः। इन्द्रो जगदीश्वरः (यदि) चेत् (श्रवत्) अस्मदीयम् आह्वानं शृणुयात्, तर्हि सः (घ) अवश्यमेव (सहस्रिणीभिः) सहस्रसंख्याकाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (वाजेभिः) बलैः ऐश्वर्यैश्च सह (नः) अस्माकम् (हवम्) आह्वानम् (उप आगमत्) उपागच्छेत् ॥ द्वितीयः—गुरुशिष्यपरः। (यदि) एष विद्यार्थी चेत् (श्रवत्) गुरुमुखात् शास्त्राणि श्रोष्यति, तदा (सहस्रिणीभिः) सहस्रसंख्याकाभिः (ऊतिभिः) विद्यातृप्तिभिः। [अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यादिषु, क्तिनि रूपम्।] (वाजेभिः) आत्मबलैश्च सह (नः) नागरिकाणाम् अस्माकम् (हवम्) उत्सवादिसमारोहम् (घ) निश्चयेन (उप आ गमत्) उपागमिष्यति, स्वकीयैर्विद्वत्तापूर्णैर्विचारैश्चास्मान् कृतार्थयिष्यति। [श्रु श्रवणे, गम्लृ गतौ। लेटि प्रथमैकवचने श्रवत्, गमत् इति] ॥३॥२
हार्दिकमाह्वानं जगदीश्वरोऽवश्यमेव शृणोति। सुयोग्यानां गुरूणां सान्निध्ये गुरुकुले वसन्तो विद्यार्थिनो विद्वांसो भूत्वा समावर्तनानन्तरं यदा बहिरागच्छेयुस्तदा सर्वानुपदिश्य सन्मार्गे प्रवर्तयेयुः ॥३॥