अ꣡नु꣢ प्र꣣त्न꣡स्यौक꣢꣯सो हु꣣वे꣡ तु꣢विप्र꣣तिं꣡ नर꣢꣯म् । यं꣢ ते꣣ पू꣡र्वं꣢ पि꣣ता꣢ हु꣣वे꣢ ॥७४४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम् । यं ते पूर्वं पिता हुवे ॥७४४॥
अ꣣नु꣢꣯ । प्र꣣त्न꣡स्य꣢ । ओ꣡क꣢꣯सः । हु꣣वे꣢ । तु꣣विप्रति꣢म् । तु꣣वि । प्रति꣢म् । न꣡र꣢꣯म् । यम् । ते꣣ । पू꣡र्व꣢꣯म् । पि꣣ता꣢ । हु꣣वे꣢ ॥७४४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर की स्तुति तथा गुरु-शिष्य का विषय है।
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। मैं उपासक (प्रत्नस्य) चिरकाल से बने हुए (ओकसः) ब्रह्माण्डरूप घर के (नरम्) नेता, (तुविप्रतिम्) बहुत से पदार्थों का निर्माण करनेवाले तुझ (इन्द्र) जगदीश्वर को (अनुहुवे) अनुकूल करने के लिए पुकारता हूँ, (यं ते) जिस तुझ जगदीश को (पूर्वम्) पहले (पिता) मेरा पिता (हुवे) पुकारा करता था ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। हे बालक ! मैं तेरा चाचा आदि (तुविप्रतिम्) बहुत सी विद्याओं की प्रतिमूर्ति, (प्रत्नस्य) पुरातन (ओकसः) विद्यागृह के (नरम्) नेता आचार्य को (अनु) अनुकूल करके, तेरे पढ़ाने तथा सदाचार सिखाने के लिए (हुवे) पुकारता हूँ, (यम्) जिस आचार्य को (पूर्वम्) पहले (ते) तेरा (पिता) पिता अन्य बालकों को पढ़ाने के लिए (हुवे) पुकारता रहा है ॥२॥
सब मनुष्यों को परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए और बालकों के संरक्षक पिता, चाचा आदि को चाहिए कि विद्या पढ़ने के लिए बालकों को सुयोग्य गुरु के पास भेजें, जिससे वे विद्वान् होकर कुशल नागरिक बनें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्तुतिं गुरुशिष्यविषयं चाह।
प्रथमः—परमेश्वरपरः। अहम् उपासकः (प्रत्नस्य) चिरन्तनस्य (ओकसः२) ब्रह्माण्ड-गृहस्य (नरम्) नेतारम्, (तुविप्रतिम्३) बहूनां पदार्थानां प्रतिमातारम् इन्द्रं जगदीश्वरं त्वाम् (अनुहुवे) अनुकूलयितुम् आह्वयामि, (यं ते) यं त्वाम् (पूर्वम्) प्राक् (पिता) मम जनकः (हुवे) आह्वयति (स्म) ॥ द्वितीयः—आचार्यपरः। हे बालक ! अहं त्वदीयः पितृव्यादिः (तुविप्रतिम्) बह्वीनां विद्यानां प्रतिकृतिभूतम्, (प्रत्नस्य) पुरातनस्य (ओकसः) विद्यागृहस्य (नरम्) नेतारम् आचार्यम् (अनु) अनुकूल्य, तवाध्यापनाय सदाचारशिक्षणाय च (हुवे) आह्वयामि, (यम्) आचार्यम् (पूर्वम्) प्राक् (ते) तव (पिता) जनकः, अन्येषां बालकानामध्यापनाय (हुवे) आह्वयति स्म ॥२॥४
सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वर उपासनीयः। किञ्च बालकानां संरक्षकैः पितृपितृव्यादिभिर्विद्याध्ययनाय बालकाः सुयोग्यस्य गुरोः समीपं प्रेषणीयाः, येन ते विद्वांसो भूत्वा कुशला नागरिका भवेयुः ॥२॥