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देवता: इन्द्रः ऋषि: शुनःशेप आजीगर्तिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

यो꣡गे꣣योगे त꣣व꣡स्त꣢रं꣣ वा꣡जे꣢वाजे हवामहे । स꣡खा꣢य꣣ इ꣡न्द्र꣢मू꣣त꣡ये꣢ ॥७४३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे । सखाय इन्द्रमूतये ॥७४३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यो꣡गेयो꣢꣯गे । यो꣡गे꣢꣯ । यो꣣गे । तव꣡स्त꣢रम् । वा꣡जे꣢꣯वाजे । वा꣡जे꣢꣯ । वा꣣जे । हवामहे । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ ॥७४३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 743 | (कौथोम) 1 » 2 » 11 » 1 | (रानायाणीय) 2 » 3 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १६३ पर योग तथा सेनाध्यक्ष के पक्ष में व्याख्या की गयी थी। यहाँ परमेश्वर, आचार्य तथा बिजली रूप अग्नि का आह्वान है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (सखायः) हम सहयोगी उपासक लोग (योगेयोगे) प्रत्येक नवीन उपलब्धि के लिए और (वाजेवाजे) प्रत्येक बल की प्राप्ति के लिए और (ऊतये) प्रगति के लिए (तवस्तरम्) अतिशय बलवान् (इन्द्रम्) विघ्नविघातक तथा परमैश्वर्यशाली परमेश्वर की (हवामहे) स्तुति करते हैं ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। (सखायः) परस्पर मित्रता में बंधे हुए हम सहाध्यायी लोग (योगेयोगे) प्रत्येक विद्या की प्राप्ति में और (वाजेवाजे) अविद्या, काम, क्रोध, मोह आदियों के साथ होनेवाले प्रत्येक संग्राम में (ऊतये) रक्षा के लिए (तवस्तरम्) विद्याबल, योगबल आदि में सर्वाधिक समृद्ध (इन्द्रम्) आचार्यप्रवर को (हवामहे) बुलाते हैं ॥ तृतीय—शिल्पविद्या के पक्ष में। यन्त्रकलाओं में बिजली का प्रयोग करनेवाला शिल्पी कह रहा है—(सखायः) हम सहयोगीगण (योगेयोगे) पदार्थों के मिश्रण से बननेवाली प्रत्येक नवीन वस्तु के निर्माण में और (वाजेवाजे) प्रत्येक बलसाध्य कार्य में (ऊतये) शिल्पविद्या के व्यवहार के लिए (तवस्तरम्) अतिशय बलवान् (इन्द्रम्) बिजलीरूप अग्नि को (हवामहे) बुलाते हैं, अर्थात् यन्त्रकलाओं में प्रयुक्त करते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे बल आदि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए, वैसे ही सब विद्याएँ पढ़ने के लिए और अन्तःकरण में होनेवाले देवासुरसंग्रामों में विजय के लिए विद्वान्, सदाचारी गुरु को स्वीकार करना चाहिए। कारखानों में व्यवहारोपयोगी पदार्थों के निर्माण के लिए तथा संग्रामों में शस्त्रास्त्र चलाने के लिए बिजली का प्रयोग करना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १६३ क्रमाङ्के योगपक्षे सेनाध्यक्षपक्षे च व्याख्याता। अत्र परमेश्वर आचार्यो विद्युदग्निश्चाहूयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमेश्वरपरः। (सखायः) सहयोगिनः उपासकाः वयम् (योगेयोगे) अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः प्रतिनूतनोपलब्धिनिमित्तम्, (वाजेवाजे) प्रतिबलप्राप्तिनिमित्तम्, (ऊतये) प्रगतये च (तवस्तरम्) बलवत्तरम् (इन्द्रम्) विघ्नविघातकं परमैश्वर्यवन्तं परमेश्वरम् (हवामहे) स्तुमः ॥ द्वितीयः—आचार्यपरः। (सखायः) परस्परं सख्येन आबद्धाः सहाध्यायिनो वयं योगेयोगे प्रतिविद्यायोगम् (वाजेवाजे) वाजः अविद्याकामक्रोधलोभमोहादिभिः संग्रामः, प्रतिसंग्रामम् (ऊतये) रक्षणाय (तवस्तरम्) अतिशयेन विद्याबलयोगबलादिभिर्युक्तम् (इन्द्रम्) आचार्यम् (हवामहे) आह्वयामः ॥२ तृतीयः—शिल्पविद्यापरः। यन्त्रकलासु विद्युतं प्रयुञ्जानः शिल्पी प्राह—(सखायः) सहयोगिनो वयम् (योगेयोगे) पदार्थानां परस्परं योजनेन नवीनानां वस्तूनां निर्माणं योगः, प्रतिनिर्माणम् (वाजेवाजे) वाजो बलम्, प्रतिबलकर्म च (ऊतये) शिल्पविद्याव्यवहाराय (तवस्तरम्) बलवत्तरम् (इन्द्रम्) विद्युदग्निम् (हवामहे) आह्वयामः, यन्त्रकलासु प्रयुज्महे इत्यर्थः ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा बलादिप्राप्तये परमेश्वर उपासनीयस्तथैव निखिलविद्याध्ययनाय अभ्यन्तरं जायमानेषु देवासुरसंग्रामेषु विजयाय च विद्वान् सदाचारी गुरुरङ्गीकार्यः। यन्त्रागारेषु व्यवहारोपयोगिनां पदार्थानां निर्माणाय संग्रामेषु शस्त्रास्त्रचालनाय च विद्युत्प्रयोगः कार्यः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।३०।७, य० ११।१४, अथ० १९।२४।७, २०।२६।१, साम० १६३। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये परमात्मपक्षे सेनाध्यक्षपक्षे च, यजुर्भाष्ये च राजपक्षे व्याख्यातवान्।