प्र꣡ ते꣢ अश्नोतु कु꣣क्ष्योः꣢꣫ प्रेन्द्र꣣ ब्र꣡ह्म꣢णा꣣ शि꣡रः꣢ । प्र꣢ बा꣣हू꣡ शू꣢र꣣ रा꣡ध꣢सा ॥७३९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र ते अश्नोतु कुक्ष्योः प्रेन्द्र ब्रह्मणा शिरः । प्र बाहू शूर राधसा ॥७३९॥
प्र꣢ । ते꣣ । अश्नोतु । कुक्ष्योः꣢ । प्र । इ꣣न्द्र । ब्र꣡ह्म꣢꣯णा । शि꣡रः꣢꣯ । प्र । बा꣣हू꣡इति꣢ । शू꣣र । रा꣡ध꣢꣯सा ॥७३९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर उसी विषय का वर्णन है।
हे (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! वह ब्रह्मानन्द-रस (ते) तेरे (कुक्ष्योः)दोनों कोखों में (प्र अश्नोतु) भली-भाँति व्याप जाए, (ब्रह्मणा)ब्रह्मज्ञान के साथ (शिरः) सिर में (प्र) भली-भाँति व्याप जाए, हे (शूर) शूरवीर मेरे अन्तरात्मन् ! (राधसा) सिद्धि एवं सफलता के साथ (बाहू) दोनों भुजाओं में (प्र) भली-भाँति व्याप जाए ॥३॥
ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मानन्द जब जीवात्मा में व्यापता है तब उसका प्रभाव देह में स्थित सभी अङ्गों पर पड़ता है। मन में श्रेष्ठ संकल्प, सिर में ज्ञानेन्द्रियों तथा बुद्धि के व्यापार और भुजाओं में सत्कर्म भली-भाँति तरंगित होने लगते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
हे (इन्द्र) मदीय अन्तरात्मन् ! स ब्रह्मानन्दरसः (ते) तव (कुक्ष्योः) उभयोः कुक्षिप्रदेशयोर्मध्ये (प्र अश्नोतु) प्रकर्षेण व्याप्नोतु, (ब्रह्मणा६) ब्रह्मज्ञानेन सह (शिरः) मूर्धानम् (प्र) प्रकर्षेण व्याप्नोतु। हे (शूर) वीर मदीय अन्तरात्मन् ! (राधसा) संसिद्ध्या साफल्येन वा सह (बाहू) भुजौ (प्र) प्रकर्षेण व्याप्नोतु ॥३॥७
ब्रह्मज्ञानं ब्रह्मानन्दश्च यदा जीवात्मानं व्याप्नोति तदा तत्प्रभावः देहस्थेषु सर्वेष्वङ्गेषु संजायते। मनसि सत्संकल्पाः, शिरसि ज्ञानेन्द्रियाणां बुद्धेश्च व्यापाराः बाह्वोश्च सत्कर्माणि सुतरां तरङ्गायन्ते ॥३॥