नृ꣡भि꣢र्धौ꣣तः꣢ सु꣣तो꣢꣫ अश्नै꣣र꣢व्या꣣ वा꣢रैः꣣ प꣡रि꣢पूतः । अ꣢श्वो꣣ न꣢ नि꣣क्तो꣢ न꣣दी꣡षु꣢ ॥७३५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)नृभिर्धौतः सुतो अश्नैरव्या वारैः परिपूतः । अश्वो न निक्तो नदीषु ॥७३५॥
नृ꣡भिः꣢꣯ । धौ꣣तः꣢ । सु꣣तः꣢ । अ꣡श्नैः꣢꣯ । अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रैः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯पूतः । प꣡रि꣢꣯ । पू꣣तः । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । नि꣣क्तः꣢ । न꣣दी꣡षु꣢ ॥७३५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि वह ब्रह्मविज्ञान-रस कैसा है।
हे शिष्य ! मेरे द्वारा जो तुझे ब्रह्मज्ञान-रस दिया जा रहा है वह (नृभिः) उन्नायक श्रेष्ठ विचारों द्वारा (धौतः) धोया गया है, (अश्नैः) पाषाणों के समान कठोर व्रताचरणों द्वारा (सुतः) अभिषुत किया गया है, (अव्याः) रक्षा करनेवाली बुद्धि के (वारैः) दोषनिवारक तर्कों द्वारा (परिपूतः) पवित्र किया गया है और (नदीषु) नदियों में (निक्तः) नहलाकर साफ किये गये (अश्वः न) घोड़े के समान (नदीषु) वेदवाणी की धाराओं में (निक्तः) शुद्ध किया गया है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। यहाँ श्लेष से सोम ओषधि के पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए। इससे ‘ब्रह्मविज्ञान सोमरस के समान है’ यह उपमानोपमेयभाव द्योतित होगा ॥२॥
जैसे ऋत्विज् लोग सोमलता को पवित्र जल से धोकर, सिल-बट्टों से कूटकर, रस निचोड़ कर, दशापवित्र नामक छन्नी से छानकर शुद्ध हुए सोमरस को अग्नि में होम करते हैं, वैसे ही गुरुजन ब्रह्मविद्यारूप लता को सद्विचारों से धोकर, कठोर व्रताचरणों से कूटकर, बुद्धि के तर्कों से छानकर, वेदवाणी की धाराओं में पवित्र करके शिष्य की आत्माग्नि में होम करते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशः स ब्रह्मविज्ञानरस इत्याह।
हे शिष्य ! मया तुभ्यं दीयमानः एष ब्रह्मविज्ञानरसः (नृभिः) उन्नायकैः सद्विचारैः (धौतः) प्रक्षालितः अस्ति, (अश्नैः) अश्मभिरिव कठोरैः व्रताचरणैः (सुतः) अभिषुतः अस्ति, (अव्याः) रक्षिकायाः बुद्धेः (वारैः) दोषनिवारयितृभिः तर्कैः (परिपूतः) पवित्रीकृतः अस्ति, किञ्च, (नदीषु) सरित्प्रवाहेषु (निक्तः) स्नानेन शोधितः (अश्वः न) तुरगः इव (नदीषु) वेदवाग्धारासु (निक्तः३) शोधितः विद्यते ॥२॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। किञ्च श्लेषेण सोमौषधिपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः। तेन ब्रह्मविज्ञानं सोमरस इवेत्युपमानोपमेयभावो द्योत्यते ॥२॥
यथा ऋत्विजः सोमलतां पवित्रेण जलेन प्रक्षाल्य पाषाणैः कुट्टयित्वा रसं निश्चोत्य दशापवित्रेण परिपूय शुद्धं सोमरसम् अग्नौ जुह्वति तथैव गुरवो ब्रह्मविद्यालतां सद्विचारैः प्रक्षाल्य, कठोरव्रताचरणैः संकुट्ट्य, बुद्धेस्तर्कैः परिपूय, वेदवाग्धारासु पवित्रीकृत्य शिष्यस्यात्माग्नौ जुह्वति ॥२॥