इ꣣द꣡म् व꣢सो सु꣣त꣢꣫मन्धः꣣ पि꣢बा꣣ सु꣡पू꣢र्णमु꣣द꣡र꣢म् । अ꣡ना꣢भयिन्ररि꣣मा꣡ ते꣢ ॥७३४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इदम् वसो सुतमन्धः पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन्ररिमा ते ॥७३४॥
इ꣣द꣢म् । वसो । सुत꣢म् । अ꣡न्धः꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ । सु꣡पू꣢꣯र्णम् । सु । पू꣣र्णम् । उद꣡र꣢म् । उ꣣ । द꣡र꣢꣯म् । अ꣡ना꣢꣯भयिन् । अन् । आ꣣भयिन् । ररिम꣢ । ते꣣ ॥७३४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १२४ पर परमात्मा और अतिथि के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ गुरुजन शिष्य को ब्रह्मानन्द-रस का पान करा रहे हैं।
हे (वसो) गुरुकुलनिवासी, व्रतपालक ब्रह्मचारी ! (इदम् अन्धः) यह ब्रह्मविज्ञान, तेरे लिए (सुतम्) अभिषुत है, तू इसे (सुपूर्णम् उदरम्) पेट भरकर (पिब) पान कर। हे (अनाभयिन्) निर्भय शिष्य ! हम (ते) तेरे लिए, यह विज्ञान (ररिम) दे रहे हैं ॥१॥
जिन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे गुरुजनों को उचित है कि वे छात्रों को ब्रह्मज्ञान देकर अनुगृहीत करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १२४ क्रमाङ्गे परमात्मविषयेऽतिथिविषये च व्याख्याता। अत्र गुरवः शिष्यं ब्रह्मज्ञानरसं पाययन्ति।
हे (वसो) गुरुकुले कृतनिवास व्रतपालक ब्रह्मचारिन् ! (इदम् अन्धः) एतद् ब्रह्मविज्ञानम् तुभ्यम् (सुतम्) अभिषुतमस्ति, त्वम् एतत् (सुपूर्णम् उदरम्) कणेहत्य (पिब) आस्वादय। हे (अनाभयिन्) निर्भय शिष्य ! वयम् (ते) तुभ्यम्, एतद् विज्ञानम् (ररिम) प्रयच्छामः ॥१॥
कृतब्रह्मसाक्षात्कारैर्गुरुभिश्छात्रा ब्रह्मज्ञानदानेनानुग्राह्याः ॥१॥