इ꣣ह꣢ त्वा꣣ गो꣡प꣢रीणसं म꣣हे꣡ म꣢न्दन्तु꣣ रा꣡ध꣢से । स꣡रो꣢ गौ꣣रो꣡ यथा꣢꣯ पिब ॥७३३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इह त्वा गोपरीणसं महे मन्दन्तु राधसे । सरो गौरो यथा पिब ॥७३३॥
इह꣢ । त्वा꣣ । गो꣡प꣢꣯रीणसम् । गो । प꣣रीणसम् । महे꣣ । म꣣न्दन्तु । रा꣡ध꣢꣯से । स꣡रः꣢꣯ । गौ꣣रः꣢ । य꣡था꣢꣯ । पि꣢ब ॥७३३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः अन्तरात्मा को उद्बोधन है।
हे मेरे अन्तरात्मन् ! (इह) इस शरीर में (गोपरीणसम्) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियाँ आदि बहुत सी गौएँ जिसके पास हैं, ऐसे (त्वा) तुझे, हमारी उद्बोधक वाणियाँ (महे राधसे) महान् ऐश्वर्य के लिए (मन्दन्तु) उत्साहित करें। (गौरः) गौर मृग प्यास से व्याकुल होकर (यथा) जैसे उत्कण्ठा के साथ (सरः) जल को पीता है, वैसे ही तू (सरः) वेदवाणी के रस, ज्ञान-रस, कर्म-रस और ब्रह्मानन्द के रस को (पिब) पी ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥३॥
मनुष्य अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देकर अपनी महत्वाकांक्षा के अनुरूप सब लौकिक और दिव्य सम्पदाओं को प्राप्त कर सकते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरप्यन्तरात्मानमुद्बोधयति।
हे मदीय अन्तरात्मन् ! (इह) अस्मिन् देहे (गोपरीणसम्) गावः मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिरूपाः परीणसा बह्वयो यस्य तादृशम्। [परीणसा इति बहुनाम। निघं० ३।१।] (त्वा) त्वाम्, अस्मदीया उद्बोधनवाचः (महे राधसे) महते ऐश्वर्याय, (महदैश्वर्यं) प्राप्तुमित्यर्थः (मन्दन्तु) उत्साहयन्तु। [मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु भ्वादिः परस्मैपदं छान्दसम्।] (गौरः) गौरमृगः, पिपासाक्रान्तो (यथा) यद्वत् उत्कण्ठया (सरः) उदकं पिबति, तथैव त्वम् (सरः२) वेदवाग्रसं ज्ञानरसं कर्मरसं ब्रह्मानन्दरसं च (पिब) आस्वादय। [सरः इति वाङ्नाम उदकनाम च। निघं० १।११।, १।१२] ॥३॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥३॥
मनुष्यैरात्मानमुद्बोध्य स्वमहत्त्वाकाङ्क्षानुरूपं सर्वा लौकिक्यो दिव्याश्च सम्पदः प्राप्तुं शक्यन्ते ॥३॥