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देवता: इन्द्रः ऋषि: त्रिशोकः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣भि꣡ त्वा꣢ वृषभा सु꣣ते꣢ सु꣣त꣡ꣳ सृ꣢जामि पी꣣त꣡ये꣢ । तृ꣣म्पा꣡ व्य꣢श्नुही꣣ म꣡द꣢म् ॥७३१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभि त्वा वृषभा सुते सुतꣳ सृजामि पीतये । तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥७३१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । वृषभ । सुते꣢ । सु꣣त꣢म् । सृ꣣जामि । पीत꣡ये꣢ । तृ꣣म्प꣢ । वि । अ꣣श्नुहि । म꣡दम्꣢꣯ ॥७३१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 731 | (कौथोम) 1 » 2 » 7 » 1 | (रानायाणीय) 2 » 2 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १६१ पर परमात्मा तथा गुरु-शिष्य के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ अपने अन्तरात्मा को सम्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वृषभ) शक्तिशाली मेरे अन्तरात्मन् ! (सुते) इस उपासना-यज्ञ के प्रवृत्त होने पर (त्वा अभि) तेरे प्रति (पीतये) पान करने के लिए (सुतम्) श्रद्धा-रस (सृजामि) उत्पन्न कर रहा हूँ। इससे तू (तृम्प)तृप्त हो, (मदम्) हर्ष को (व्यश्नुहि) प्राप्त कर ॥१॥

भावार्थभाषाः -

सबको चाहिए कि अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देकर उसके अन्दर श्रद्धा-रस का सञ्चार करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १६१ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे गुरुशिष्यपक्षे च व्याख्याता। अत्र स्वान्तरात्मानमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वृषभ) शक्तिशालिन् ममान्तरात्मन् ! (सुते) प्रवृत्तेऽस्मिन् उपासनायज्ञे (त्वा अभि) त्वां प्रति (पीतये) पानाय (सुतम्)श्रद्धारसम् (सृजामि) उत्पादयामि। एतेन त्वम् (तृम्प) तृप्तिं लभस्व, (मदम्) हर्षम् (व्यश्नुहि) प्राप्नुहि ॥१॥

भावार्थभाषाः -

सर्वैः स्वान्तरात्मानमुद्बोध्य तस्मिन् श्रद्धासः सञ्चारणीयः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।४५।२२, अथ० २०।२२।१, साम० १६१।