शा꣡चि꣢गो꣣ शा꣡चि꣢पूजना꣣य꣡ꣳ रणा꣢꣯य ते सु꣣तः꣢ । आ꣡ख꣢ण्डल꣣ प्र꣡ हू꣢यसे ॥७२६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)शाचिगो शाचिपूजनायꣳ रणाय ते सुतः । आखण्डल प्र हूयसे ॥७२६॥
शा꣡चि꣢꣯गो । शा꣡चि꣢꣯ । गो꣣ । शा꣡चि꣢꣯पूजन । शा꣡चि꣢꣯ । पू꣣जन । अय꣢म् । र꣡णा꣢꣯य । ते꣣ । सुतः꣢ । आ꣡ख꣢꣯ण्डल । प्र । हू꣡यसे ॥७२६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
गुरु से अध्यात्मविद्या ग्रहण कर चुकने के पश्चात् शिष्य परमेश्वर को पुकार रहे हैं।
हे (शाचिगो) जिसकी वाणियाँ ज्ञान और कर्म का उपदेश करनेवाली हैं, ऐसे जगदीश्वर ! हे (शाचिपूजन) ज्ञानी पुरुषार्थियों से पूजे जानेवाले परमात्मन् ! (अयम्) यह भक्ति-रस (ते) आपके (रणाय) रमने के लिए (सुतः) हमारे द्वारा उत्पन्न किया गया है। हे (आखण्डल) दुःख, दुर्गुण, दुर्व्यसन आदि को खण्ड-खण्ड करनेवाले देव ! आप उस भक्ति-रस का पान करने के लिए (प्रहूयसे) हमारे द्वारा चाव से बुलाए जा रहे हो ॥२॥
ज्ञान और पुरुषार्थपूर्वक भक्तिभाव से आराधना किया हुआ परमेश्वर उपासकों के दुःख, दारिद्र्य आदि को खण्डित करके उन्हें ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करके सुखी करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
गुरोरध्यात्मविद्याग्रहणानन्तरं शिष्याः परमेश्वरमाह्वयन्ति।
हे (शाचिगो३) शाचयः ज्ञानकर्मोपदेशिकाः गावः वेदवाचः यस्य तादृश जगदीश्वर ! हे (शाचिपूजन) शाचिभिः ज्ञानिभिः पुरुषार्थिभिश्च पूज्यते यः तादृश परमात्मन् ! [शचीशब्दस्य प्रज्ञानामसु निघं० ३।९ कर्मनामसु च निघं० २।१ पाठात् शच धातुः ज्ञानकर्मार्थो बोध्यः।] (अयम्) एषः भक्तिरसः (ते) तव (रणाय) रमणाय (सुतः) अस्माभिः उत्पादितः अस्ति। हे (आखण्डल) दुःखदुर्गुणदुर्व्यसनादीनाम् आखण्डयितः देव ! त्वम् तं भक्तिरसं प्रति (प्रहूयसे) अस्माभिः प्रकृष्टतया सोत्कण्ठम् आहूयसे ॥२॥
ज्ञानपुरुषार्थपूर्वकं भक्तिभावेनाराधितः परमेश्वर उपासकानां दुःखदारिद्र्यादिकं विखण्ड्य तान् ऋद्धिसिद्धिप्रदानेन सुखयति ॥२॥