त्रि꣡क꣢द्रुकेषु꣣ चे꣡त꣢नं दे꣣वा꣡सो꣢ य꣣ज्ञ꣡म꣢त्नत । त꣡मि꣢꣯द्वर्धन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ ॥७२४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्रिकद्रुकेषु चेतनं देवासो यज्ञमत्नत । तमिद्वर्धन्तु नो गिरः ॥७२४॥
त्रि꣡क꣢꣯द्रुकेषु । त्रि । क꣣द्रुकेषु । चे꣡तन꣢꣯म् । दे꣣वा꣡सः꣢ । य꣣ज्ञ꣢म् । अ꣣त्नत । त꣣म् । इत् । व꣣र्द्धन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ ॥७२४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में उपासना-यज्ञ का विषय है।
(देवासः) विद्वान् लोग (त्रिकद्रुकेषु) जिनमें आत्मा, मन और बुद्धि ये तीन मूल केन्द्र होते हैं उन व्यवहारों में (चेतनम्) चेतना प्रदान करनेवाले (यज्ञम्) उपासनायज्ञ को (अत्नत) फैलाते हैं। (तम् इत्) उसी उपासनायज्ञ को (नः) हमारी (गिरः) स्तुतिवाणियाँ (वर्धन्तु) बढ़ायें ॥३॥
परमेश्वर की उपासना से मनुष्य की आत्मा में चेतना का प्रवाह, जागरूकता, कर्तव्यनिष्ठा, शूरता, कर्मण्यता, विजयशीलता, परोपकारिता इत्यादि गुण स्वयं ही आ जाते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जीवात्मा-परमात्मा व गुरु-शिष्य विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ द्वितीय अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासनायज्ञविषयमाह।
(देवासः) विद्वांसो जनाः (त्रिकद्रुकेषु२) त्रीणि कद्रुकाणि केन्द्रकीलकानि आत्ममनोबुद्ध्याख्यानि येषु तेषु व्यवहारेषु (चेतनम्) चेतयितारम् (यज्ञम्) उपासनायज्ञम् (अत्नत)विस्तारयन्ति। (तम् इत्) तमेव उपासनायज्ञम् (नः) अस्माकम्(गिरः) स्तुतिवाचः (वर्धन्तु) वर्धयन्तु ॥३॥
परमेश्वरोपासनया मनुष्यस्यात्मनि चेतनाप्रवाहो जागरूकता कर्तव्यनिष्ठा शूरता कर्मण्यता विजेतृता परोपकारितेत्यादयो गुणाः स्वत एव समायान्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जीवात्मपरमात्मगुरुशिष्यविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥