इ꣡न्द्रा꣢य꣣ म꣡द्व꣢ने सु꣣तं꣡ परि꣢꣯ ष्टोभन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ । अ꣣र्क꣡म꣢र्च्चन्तु का꣣र꣡वः꣢ ॥७२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिरः । अर्कमर्च्चन्तु कारवः ॥७२२॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯य । म꣡द्व꣢꣯ने । सु꣣त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । स्तो꣣भन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ । अ꣣र्क꣢म् । अ꣣र्चन्तु । कार꣡वः꣢ ॥७२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १५८ पर परमात्मोपासना के विषय में की गयी है। यहाँ गुरुजन कह रहे हैं।
(मद्वने) ब्रह्मविद्या में आनन्द अनुभव करनेवाले (इन्द्राय)शिष्यों के आत्मा के लिए (नः) हमारी (गिरः) वाणियाँ (सुतम्) अभिषुत ज्ञान को (परिष्टोभन्तु) परिधारित करें, देवें, जिससे (कारवः) स्तुतिकर्ता होते हुए वे (अर्कम्) पूजनीय परमात्मदेव की (अर्चन्तु) पूजा किया करें ॥१॥
शिष्यों को चाहिए कि गुरुओं से लौकिक ज्ञान और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके गुरुजनों द्वारा उपदेश किये गये मार्ग से परमात्मा का ध्यान करते हुए उसका साक्षात्कार करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५८ क्रमाङ्के परमात्मार्चनविषये व्याख्याता। अत्र गुरवो ब्रुवन्ति।
(मद्वने) ब्रह्मविद्यायामानन्दमनुभवते। [यो विद्यया माद्यति स मद्वा। मदी हर्षे क्वनिप्।] (इन्द्राय) शिष्याणाम् अन्तरात्मने (नः) अस्माकम् (गिरः) वाचः (सुतम्) अभिषुतं ज्ञानम् (परिष्टोभन्तु)परिधारयन्तु। [स्तुभु स्तम्भे, भ्वादिः।] येन (कारवः)स्तुतिकर्तारः सन्तस्ते (अर्कम्) अर्चनीयं परमात्मदेवम् (अर्चन्तु) पूजयन्तु ॥१॥
गुरुभ्यो लौकिकं ज्ञानं ब्रह्मज्ञानं च प्राप्य शिष्या गुरूपदिष्टमार्गेण परमात्मानं ध्यायन्तस्तं साक्षात्कुर्वन्तु ॥१॥