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न꣡ घे꣢म꣣न्य꣡दा प꣢꣯पन꣣ व꣡ज्रि꣢न्न꣣प꣢सो꣣ न꣡वि꣢ष्टौ । त꣢꣯वेदु꣣ स्तो꣡मै꣢श्चिकेत ॥७२०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

न घेमन्यदा पपन वज्रिन्नपसो नविष्टौ । तवेदु स्तोमैश्चिकेत ॥७२०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न꣢ । घ꣣ । ईम् । अन्य꣢त् । अ꣣न् । य꣢त् । आ । प꣣पन । व꣡ज्रि꣢꣯न् । अ꣣प꣡सः꣢ । न꣡वि꣢꣯ष्टौ । त꣡व꣢꣯ । इत् । उ꣣ । स्तो꣡मैः꣢꣯ । चि꣣केत ॥७२०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 720 | (कौथोम) 1 » 2 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 2 » 1 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः आचार्य को कहा जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वज्रिन्) कठोर नियन्त्रण रूप वज्र से शिष्यों को संस्कृत करनेवाले गुरुवर ! (अपसः) विद्याध्ययनरूप कर्म के (नविष्टौ) नवीन सत्र के आरम्भ में, मैं (अन्यत्) किसी अन्य की (न घ ईम्) नहीं (आ पपन) स्तुति करता हूँ (तव इत् उ) आपकी ही (स्तोमैः) सूक्तियों से (चिकेत) ज्ञानी बनता हूँ ॥२॥

भावार्थभाषाः -

शिष्यों को चाहिए कि विद्या के लिए यथासंभव उस विद्या में निष्णात एक ही गुरु को चुनें, क्योंकि अनेकों को चुनने में उनके पारस्परिक मतभेदों के कारण नाना सन्देह उत्पन्न हो सकते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरप्याचार्यं प्राह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वज्रिन्) वज्रधर, कठोरनियन्त्रणरूपेण वज्रेण शिष्यान् संस्कर्तः गुरो ! (अपसः) विद्याध्ययनकर्मणः (नविष्टौ)नूतनसत्रारम्भे। [नवा चासौ इष्टिः नविष्टिः। नवेष्टिः इति प्राप्ते ‘एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्’ अ० ६।१।७० वा० इति पररूपम्।] (अन्यत्) अन्यं कञ्चित् (न घ ईम्) न खलु (आ पपन)स्तौमि। [आङ्पूर्वात् पण व्यवहारे स्तुतौ च इति धातोर्लडर्थे लिटि उत्तमैकवचने रूपम्।] (तव इत् उ) तवैव (स्तोमैः) सूक्तैः(चिकेत) ज्ञानवान् भवामि ॥२॥

भावार्थभाषाः -

शिष्यैरेकस्यै विद्यायै यथासम्भवं तद्विद्यानिष्णात एक एव गुरुः स्वीकरणीयः, अनेकेषां वरणे तेषां पारस्परिकविप्रतिपत्तिभिर्नाना- सन्देहोदयप्रसङ्गात् ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।२।१७, अथ० २०।१८।२