व꣣य꣡मु꣢ त्वा त꣣दि꣡द꣢र्था꣣ इ꣡न्द्र꣢ त्वा꣣य꣢न्तः꣣ स꣡खा꣢यः । क꣡ण्वा꣢ उ꣣क्थे꣡भि꣢र्जरन्ते ॥७१९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वयमु त्वा तदिदर्था इन्द्र त्वायन्तः सखायः । कण्वा उक्थेभिर्जरन्ते ॥७१९॥
व꣣य꣢म् । उ꣣ । त्वा । तदि꣡द꣢र्थाः । त꣣दि꣢त् । अर्थाः । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वा꣣य꣡न्तः꣢ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । क꣡ण्वाः꣢꣯ । उ꣣क्थे꣡भिः꣢ । ज꣣रन्ते ॥७१९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १५७ पर परमात्मोपासना के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ शिष्यगण आचार्य को कह रहे हैं।
हे आचार्यप्रवर ! (तदिदर्थाः) वह लौकिक विद्या तथा ब्रह्मविद्या का अध्ययन ही जिनका उद्देश्य है, ऐसे (वयम्) हम विद्यार्थी (त्वा) आपके समीप आते हैं। हे (इन्द्र) विद्याओं के अधिपति ! (सखायः) सहाध्यायी हम (त्वायन्तः) आपको चाहते हैं। सभी (कण्वाः) मेधावी विद्यार्थी (उक्थेभिः) स्तोत्रों से आपकी (जरन्ते) स्तुति करते हैं ॥१॥
शिष्यों को चाहिये कि गुरुओं के प्रति सदा ही विनय का व्यवहार करें, नित्य उनकी सेवा करें। कहा भी है—पढ़ाए हुए जो विप्र छात्र मन-वाणी-कर्म से गुरु का आदर नहीं करते, वे गुरु के कृपापात्र नहीं बनते और न ही पढ़ी हुई विद्या उनकी रक्षा करती है (निरुक्त २।४) ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५७ क्रमाङ्के परमात्मार्चनविषये व्याख्याता। अत्र शिष्या आचार्यं निवेदयन्ति।
हे आचार्यप्रवर ! (तदिदर्थाः) तदित् तदेव लौकिकविद्याब्रह्मविद्याध्ययनम् (अर्थः) प्रयोजनं येषां तथाविधाः (वयम्) विद्यार्थिनः (त्वा) त्वाम्, उपैमः इति शेषः। हे (इन्द्र) विद्याधिपते ! (सखायः) सहाध्यायिनो वयम् (त्वायन्तः) त्वां कामयमानाः स्मः। सर्वे एव (कण्वाः) मेधाविनो विद्यार्थिनः (उक्थेभिः) स्तोत्रैः, त्वाम् (जरन्ते) स्तुवन्ति ॥१॥
शिष्यैर्गुरून् प्रति सदैव विनयेन वर्तनीयं, नित्यं ते परिचरणीयाश्च। उक्तञ्च यथा, “अध्यापिता ये गुरुं नाद्रियन्ते विप्रा वाचा मनसा कर्मणा वा। यथैव ते न गुरोर्भोजनीयास्तथैव तान्न भुनक्ति श्रुतं तत्” (निरु० २।४)इति ॥१॥