त्वं꣡ न इ꣢न्द्र वाज꣣यु꣢꣫स्त्वं ग꣣व्युः꣡ श꣢तक्रतो । त्व꣡ꣳ हि꣢रण्य꣣यु꣡र्व꣢सो ॥७१८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वं न इन्द्र वाजयुस्त्वं गव्युः शतक्रतो । त्वꣳ हिरण्ययुर्वसो ॥७१८॥
त्व꣢म् । नः꣣ । इन्द्रः । वाजयुः꣢ । त्वम् । ग꣣व्युः꣢ । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । त्व꣢म् । हि꣣रण्ययुः꣢ । व꣣सो ॥७१८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जगदीश्वर की स्तुति है।
हे (इन्द्र) सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (नः) हमारे लिये (वाजयुः) अन्न, धन, बल, विज्ञान आदि प्रदान करने के इच्छुक होवो। हे (शतक्रतो) अनन्त ज्ञान तथा अनन्त कर्मोंवाले जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (गव्युः) हमें गाय प्रदान करने के इच्छुक होवो। हे (वसो) निवास देनेवाले जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (हिरण्ययुः) हमें सुवर्ण और ज्योति प्रदान करने के इच्छुक होवो ॥३॥
परमात्मा की उपासना करके उसकी कृपा से हम अन्न, धन, गाय, बल, वेग, विज्ञान, श्रेष्ठ संकल्प, श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ विवेक, श्रेष्ठ प्रकाश, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ गुण तथा दुःखों से मोक्ष आदि सभी भौतिक और दिव्य सम्पदा पाने योग्य होवें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरं स्तौति।
हे (इन्द्र) सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! (नः) अस्मभ्यम् (वाजयुः) अन्नधनबलविज्ञानादिप्रदानकामो भव, हे (शतक्रतो१) अनन्तप्रज्ञ अनन्तकर्मन् ! (त्वम् गव्युः) गोप्रदानकामो भव। हे (वसो) निवासप्रद ! (त्वम् हिरण्ययुः) सुवर्णप्रदानकामो ज्योतिष्प्रदानकामो वा भव ॥३॥२
परमात्मानमुपास्य तत्कृपया वयम् अन्नधनधेनुबलवेगविज्ञान- सत्संकल्पसद्विचारसद्विवेकसत्प्रकाशसत्कर्मसद्गुणदुःख-मोक्षादिरूपां सर्वामपि भौतिकीं दिव्यां च सम्पदं प्राप्तुमर्हेम ॥३॥