श꣢꣫ꣳसेदु꣣क्थ꣢ꣳ सु꣣दा꣡न꣢व उ꣣त꣢ द्यु꣣क्षं꣢꣫ यथा꣣ न꣡रः꣢ । च꣣कृमा꣢ स꣣त्य꣡रा꣢धसे ॥७१७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)शꣳसेदुक्थꣳ सुदानव उत द्युक्षं यथा नरः । चकृमा सत्यराधसे ॥७१७॥
श꣡ꣳस꣢꣯ । इत् । उ꣣क्थ꣢म् । सु꣣दा꣡न꣢वे । सु꣣ । दा꣡न꣢वे । उ꣡त꣢ । द्यु꣣क्ष꣢म् । द्यु꣣ । क्ष꣢म् । य꣡था꣢꣯ । न꣡रः꣢꣯ । च꣣कृम꣢ । स꣣त्य꣡रा꣢धसे । स꣣त्य꣢ । रा꣣धसे ॥७१७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति के लिये प्रेरणा है।
हे साथी ! तू (सुदानवे) उत्कृष्ट दानी इन्द्र परमात्मा के लिए (उक्थम्) स्तोत्र का (उत) और (द्युक्षम्) तेज का निवास करानेवाले उसके गुण-कर्म-स्वभाव का (शंस इत्) अवश्य कीर्तन कर, (यथा) जिस प्रकार (नरः) नेता हम लोग (सत्यराधसे) सच्चे धनवाले उसके लिये (चकृम) स्तोत्र का तथा उसके गुण-कर्म-स्वभाव का कीर्तन करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥
सब मनुष्यों को चहिये कि जगदीश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का कीर्तन करके उसके अनुकूल अपना जीवन बनायें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मशंसनाय प्रेरयति।
हे सखे ! त्वम् (सुदानवे) उत्कृष्टदानाय इन्द्राय परमात्मने (उक्थ्यम्२) स्तोत्रम् (उत) अपि च तस्य (द्युक्षम्) दीप्तिनिवासकं गुणकर्मस्वभावम् (शंस इत्) कीर्तय खलु, (यथा) येन प्रकारेण (नरः) नेतारो मनुजाः वयम् (सत्यराधसे३) सत्यधनाय तस्मै (चकृम) स्तोत्रं तद्गुणकर्मस्वभावकीर्तनं च कुर्मः ॥२॥४ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
सर्वैर्मानवैर्जगदीश्वरस्य गुणकर्मस्वभावान् संकीर्त्य तदनुकूलं स्वजीवनं कार्यम् ॥२॥