वा꣡र्ण त्वा꣢꣯ य꣣व्या꣢भि꣣र्व꣡र्ध꣢न्ति शूर꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि । वा꣣वृध्वा꣡ꣳसं꣢ चिदद्रिवो दि꣣वे꣡दि꣢वे ॥७११॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वार्ण त्वा यव्याभिर्वर्धन्ति शूर ब्रह्माणि । वावृध्वाꣳसं चिदद्रिवो दिवेदिवे ॥७११॥
वाः । न । त्वा꣣ । यव्या꣡भिः꣢ । व꣡र्द्ध꣢꣯न्ति । शू꣣र । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । वा꣣वृध्वा꣡ꣳस꣢म् । चि꣣त् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । दि꣡वेदि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे ॥७११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा का विषय है।
हे (शूर) शूरवीर, (अद्रिवः) किसी से विदारण न किये जा सकनेवाले अजर-अमर इन्द्र प्रभु ! (यव्याभिः) नहरों द्वारा जल लाकर (वाः न) जैसे सरोवर आदि में लोग जल के परिमाण को बढ़ाते रहते हैं, वैसे ही (वावृध्वांसं चित्) पहले से बढ़े हुए भी (त्वा) तुझे (ब्रह्माणि) उपासक के स्तोत्र (वर्धन्ति) अपने हृदय में बढ़ाते हैं या समाज में प्रचारित करते हैं ॥२॥ ‘जो पहले से ही बढ़ा हुआ है, उसे भी बढ़ाते हैं’ इसमें विरोधालङ्कार है। बढ़ाने से स्मरण तथा प्रचार अभिप्रेत होने पर विरोध का परिहार हो जाता है ॥२॥
सर्वान्तर्यामी ह्रासवृद्धिरहित भी परमेश्वर लोगों द्वारा भुला दिये जाने से और नास्तिकता का प्रचार हो जाने के कारण मानो ह्रास को प्राप्त हो जाता है। भक्तजनों को चाहिए कि उसके स्तोत्रों का गान करके उसे बढ़ायें तथा उसका प्रचार करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मविषय उच्यते।
हे (शूर) वीर, (अद्रिवः) विदारयितुमशक्य अजरामर इन्द्र प्रभो ! (यव्याभिः) कुल्याभिः। [यव्याः इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३।] (वाः न) सरोवरादौ उदकं यथा वर्धयन्ति जनाः, तथैव (वावृध्वांसं चित्) वृद्धमपि (त्वा) त्वाम् (ब्रह्माणि) उपासकानां स्तोत्राणि (वर्धन्ति) स्वहृदये समेधयन्ति समाजे वा प्रचारयन्ति ॥२॥ यः पूर्वमेव वृद्धस्तमपि वर्धन्तीति विरोधालङ्कारः। वर्धनेन स्मरणं प्रचारणं च गृह्यते इति विरोधपरिहारः ॥२॥
सर्वान्तर्यामी ह्रासवृद्धिरहितोऽपि जनैर्विस्मृतत्वाद् नास्तिकत्व—प्रचाराच्च ह्रसित इव भवति। भक्तजनैस्तदीयस्तोत्रगानैः स वर्धनीयः प्रचारणीयश्च ॥२॥