वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें
देवता: इन्द्रः ऋषि: नृमेध आङ्गिरसः छन्द: ककुबुष्णिक् स्वर: ऋषभः काण्ड:

अ꣢धा꣣꣬ ही꣢꣯न्द्र गिर्वण꣣ उ꣡प꣢ त्वा꣣ का꣡म꣢ ई꣣म꣡हे꣢ ससृ꣣ग्म꣡हे꣢ । उ꣣दे꣢व꣣ ग्म꣡न्त꣢ उ꣣द꣡भिः꣢ ॥७१०॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे । उदेव ग्मन्त उदभिः ॥७१०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ध꣢꣯ । हि । इ꣣न्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः । उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । का꣡मे꣢꣯ । ई꣣म꣡हे꣢ । स꣣सृग्म꣡हे꣢ । उ꣣दा꣢ । इ꣣व । ग्म꣡न्तः꣢꣯ । उ꣣द꣡भिः꣢ ॥७१०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 710 | (कौथोम) 1 » 1 » 23 » 1 | (रानायाणीय) 1 » 6 » 4 » 1


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ४०६ क्रमाङ्क पर जगदीश्वर के विषय में की गयी थी। यहाँ शिष्य ब्रह्मवेत्ता आचार्य को कह रहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (गिर्वणः) उपदेशवाणियों के लिये सेवनीय (इन्द्र) ब्रह्मवेत्ता आचार्यप्रवर ! (अध हि) अब हम शिष्य लोग (कामे) ब्रह्मसाक्षात्काररूपी मनोरथ की पूर्ति के लिये (त्वा) तेरे (उप) (ईमहे) समीप पहुँचते हैं और (ससृग्महे) तेरे साथ निकट संसर्ग प्राप्त करते हैं। कैसे? (उदा इव) जैसे जलों के बीच से (ग्मन्तः) जाते हुए लोग (उदभिः) जलों से संसर्ग को पाते हैं ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘महे, महे’ और ‘उदे, उद’ में छेकानुप्रास है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जब जिज्ञासुजन समित्पाणि होकर आचार्य के प्रति स्वयं को समर्पित करके उसके सान्निध्य में रहते हैं और उससे कुछ भी नहीं छिपाते हैं, तभी वे उसके पास से अपरा विद्या और परा विद्या सीख पाते हैं ॥१॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४०६ क्रमाङ्के जगदीश्वरविषये व्याख्याता। अत्र शिष्या ब्रह्मविदमाचार्यं प्राहुः।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (गिर्वणः) गीर्भ्यः उपदेशवाग्भ्यः वननीय संभजनीय (इन्द्र) ब्रह्मविद् आचार्यप्रवर ! (अध हि) अथ खलु, वयं शिष्याः (कामे) ब्रह्मसाक्षात्काररूपमनोरथपूर्त्यर्थम् (त्वा) त्वाम् (उप ईमहे) उप गच्छामः, (ससृग्महे) त्वया सह निकटसंसर्गं च प्राप्नुमः। कथम् ? (उदा इव) यथा उदकेन जलमध्येन (ग्मन्तः) गच्छन्तः जनाः (उदभिः) उदकैः संसृज्यन्ते तद्वत्। उक्तं च यथा—आ॒चा॒र्यऽ उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रि॑णं कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। अथ० ११।५।३। इति ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘महे, महे’, ‘उदे, उद’ इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यदा जिज्ञासुजनाः समित्पाणयो भूत्वाऽऽचार्यं प्रत्यात्मानं समर्प्य तत्सान्निध्ये वसन्ति, ततो न किमपि निगूहन्ति, तदैव तत्सकाशादपराविद्यां पराविद्यां च प्राप्तुं क्षमन्ते ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९८।७, अथ० २०।१००।१ उभयत्र ‘कामा॑न् म॒हः स॑सृ॒ज्महे॑। उ॒देव॒ यन्त॑ उ॒दभिः॑’ इति पाठः। साम० ४०६।