न꣡ हि ते꣢꣯ पू꣣र्त꣡म꣢क्षि꣣प꣡द्भुव꣢꣯न्नेमानां पते । अ꣢था꣣ दु꣡वो꣢ वनवसे ॥७०७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)न हि ते पूर्तमक्षिपद्भुवन्नेमानां पते । अथा दुवो वनवसे ॥७०७॥
न꣢ । हि । ते꣣ । पूर्त꣢म् । अ꣣क्षिप꣢त् । अ꣣क्षि । प꣢त् । भु꣡व꣢꣯त् । ने꣣मानाम् । पते । अ꣡थ꣢꣯ । दु꣡वः꣢꣯ । व꣣नवसे ॥७०७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में शिष्य गुरु को कह रहे हैं।
हे (नेमानां पते) हम अपूर्णों के पालनकर्ता आचार्यवर ! (ते) आपका (पूर्तम्) पालनपूरण (अक्षिपत्) आँख आदि इन्द्रियों को पतन की ओर ले जानेवाला (नहि) न (भुवत्) होवे। (अथ) और, आप हमारे (दुवः) सत्कार को (वनवसे) स्वीकार कीजिए ॥३॥
गुरुजन शिष्यों को भली-भाँति पढ़ाकर सदाचार में प्रवृत्त करें और शिष्य उनका श्रद्धा के साथ सत्कार करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ शिष्या गुरुं प्राहुः।
हे (नेमानां२ पते) अपूर्णानाम् अस्माकम् [त्वो नेम इत्यर्धस्य। निरु० ३।२०।] पालक आचार्यवर ! (ते) तव (पूर्तम्) पालनं, पूरणं (अक्षि-पत्) नेत्रादीनाम् इन्द्रियाणां पातयितृ (नहि) नैव (भुवत्) भवेत्। (अथ) अपि च, त्वम् अस्माकम् (दुवः) परिचरणम्। [दुवस्यतिः परिचरणकर्मा निघं० ३।५।] (वनवसे) सम्भजस्व। [वन सम्भक्तौ, लेटि रूपम्] ॥३॥३
गुरवः शिष्यान् सम्यगध्याप्य सदाचारे प्रवर्त्तयेयुः, शिष्याश्च तान् श्रद्धया सत्कुर्युः ॥३॥