य꣢त्र꣣꣬ क्व꣢꣯ च ते꣣ म꣢नो꣣ द꣡क्षं꣢ दधस꣣ उ꣡त्त꣢रम् । त꣢त्र꣣ यो꣡निं꣢ कृणवसे ॥७०६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यत्र क्व च ते मनो दक्षं दधस उत्तरम् । तत्र योनिं कृणवसे ॥७०६॥
य꣡त्र꣢꣯ । क्व꣢ । च꣣ । ते । म꣡नः꣢꣯ । द꣡क्ष꣢꣯म् । द꣣धसे । उ꣡त्त꣢꣯रम् । त꣡त्र꣢꣯ । यो꣡नि꣢꣯म् । कृ꣣णवसे ॥७०६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
हे विद्यार्थिन् ! (यत्र क्व च) जिस किसी भी विज्ञान में (ते मनः) तेरा मन है, अर्थात् तेरी रुचि है, उसमें (उत्तरम्) अधिकाधिक (दक्षम्) बल को, निपुणता को (दधसे) धारण कर और (तत्र)उस विज्ञान में (योनिम्) घर (कृणवसे) कर ले, अर्थात् उस विद्या में पारंगत हो जा ॥२॥
जिन भी विद्याओं में शिष्यों की रुचि तथा ग्रहणशक्ति हो, उन विद्याओं में गुरुजन उन्हें निष्णात करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
पुनरपि तमेव विषयमाह।
हे विद्यार्थिन् ! (यत्र क्व च) यत्र कुत्रापि, यस्मिन् कस्मिन्नपि विज्ञाने (ते मनः) तव चित्तम्, अस्ति, तत्र (उत्तरम्) अधिकतरम् (दक्षम्) बलम्, नैपुण्यम् (दधसे) धत्स्व। अपि च (तत्र) तस्मिन् विज्ञाने (योनिम्) गृहम् (कृणवसे) कुरुष्व, तस्यां विद्यायां पारंगतो भवेत्यर्थः ॥२॥
यास्वपि विद्यासु शिष्याणां रुचिर्ग्रहणशक्तिश्च भवेत्, तासु विद्यासु ते गुरुभिर्निष्णाताः कार्याः ॥२॥४