यो꣡ धार꣢꣯या पाव꣣क꣡या꣢ परिप्र꣣स्य꣡न्द꣢ते सु꣣तः꣢ । इ꣢न्दु꣣र꣢श्वो꣣ न꣡ कृत्व्यः꣢꣯ ॥६९८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः । इन्दुरश्वो न कृत्व्यः ॥६९८॥
यः । धा꣡र꣢꣯या । पा꣣वक꣡या꣢ । प꣣रिप्रस्य꣡न्द꣢ते । प꣣रि । प्रस्य꣡न्द꣢ते । सु꣣तः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । कृ꣡त्व्यः꣢꣯ ॥६९८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में ज्ञान, कर्म और उपासना से मिलनेवाले आनन्द का वर्णन है।
(सुतः) उत्पन्न किया गया (यः) जो (पावकया) पवित्र करनेवाली (धारया) धारा के साथ (परिप्रस्यन्दते) चारों ओर बहता है, वह (इन्दुः) ज्ञान, कर्म और उपासना से मिलनेवाला आनन्द (कृत्व्यः) संग्राम में कुशल (अश्वः न) घोड़े के समान (कृत्व्यः) कृतार्थ करनेवाला होता है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥
वे लोग धन्य हैं, जो ज्ञान, कर्म और उपासना से प्राप्त होनेवाले अगाध आनन्द का अनुभव करते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ ज्ञानकर्मोपासनाजन्यमानन्दं वर्णयति।
(सुतः) निष्पादितः (यः) यः (पावकया) पवित्रतादायिन्या (धारया) प्रवाहसन्तत्या (परिप्रस्यन्दते) सर्वतः प्रवहति, सः (इन्दुः) ज्ञानकर्मोपासनाजन्यः आनन्दः (कृत्व्यः) संग्रामकर्मणि कुशलः (अश्वः न) तुरगः इव (कृत्व्यः२) कृतार्थयिता भवति। [कृत्वी इति कर्मनाम, निघं० २।१, तत्र साधुः कृत्व्यः। साध्वर्थे यत्।] ॥२॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥२॥
धन्याः खलु ते ये ज्ञानकर्मोपासनाजन्यं प्रचुरमानन्दमनुभवन्ति ॥२॥