प꣡व꣢स्व꣣ म꣡धु꣢मत्तम꣣ इ꣡न्द्रा꣢य सोम क्रतु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ । म꣡हि꣢ द्यु꣣क्ष꣡त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ ॥६९२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमो मदः । महि द्युक्षतमो मदः ॥६९२॥
प꣡वस्व꣢꣯ । म꣡धु꣢꣯मत्तमः । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । क्रतुवि꣡त्त꣢मः । क्र꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯मः । म꣡दः꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । द्यु꣣क्ष꣡त꣢मः । द्यु꣣ । क्ष꣡त꣢꣯मः । म꣡दः꣢꣯ ॥६९२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ५७८ क्रमाङ्क पर परमात्मा से प्राप्त होनेवाले आनन्दरस के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ आचार्य से प्राप्त होनेवाले ज्ञानरस का वर्णन है।
हे (सोम) ब्रह्मज्ञान-रस ! (मधुमत्तमः) सबसे अधिक मधुर तू (पवस्व) हमें पवित्र कर। तेरा (मदः) आनन्द (इन्द्राय) मेरे अन्तरात्मा के लिए (क्रतुवित्तमः) प्रज्ञा तथा कर्म को अत्यधिक प्राप्त करानेवाला होता है। तेरा (मदः) आनन्द (महि) अत्यधिक (द्युक्षतमः) तेज को बसानेवाला होता है ॥१॥
आचार्य से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके ब्रह्म के गुण-कर्म-स्वभाव का ध्यान कर-करके अपने जीवन को पवित्र करना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५७८ क्रमाङ्के परमात्मन आनन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र आचार्यात् प्राप्तव्यस्य ज्ञानरसस्य विषयमाह।
हे (सोम) ब्रह्मज्ञानरस ! (मधुमत्तमः) अतिशयेन मधुरः त्वम् (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। तव (मदः) आनन्दः (इन्द्राय) अन्तरात्मने (क्रतुवित्तमः) अतिशयेन प्रज्ञायाः कर्मणश्च लम्भकः भवतीति शेषः। त्वदीयः (मदः) आनन्दः (महि) महत् (द्युक्षतमः) दीप्तेः निवासयितृतमः, जायते इति शेषः ॥१॥
आचार्याद् ब्रह्मज्ञानं प्राप्य ब्रह्मणो गुणकर्मस्वभावान् ध्यायं-ध्यायं स्वजीवनं पावनीयम् ॥१॥