र꣣क्षोहा꣢ वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिर꣣भि꣢꣫ योनि꣣म꣡यो꣢हते । द्रो꣡णे꣢ स꣣ध꣢स्थ꣣मा꣡स꣢दत् ॥६९०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)रक्षोहा विश्वचर्षणिरभि योनिमयोहते । द्रोणे सधस्थमासदत् ॥६९०॥
र꣣क्षोहा꣢ । र꣣क्षः । हा꣢ । वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिः । वि꣣श्व꣢ । च꣣र्षणिः । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । अ꣡यो꣢꣯हते । अ꣡यः꣢꣯ । ह꣣ते । द्रो꣡णे꣢꣯ । स꣣ध꣡स्थ꣢म् । स꣣ध꣢ । स्थ꣣म् । आ꣢ । अ꣣सदत् ॥६९०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
(रक्षोहा) काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि राक्षसों का विनाशक, (विश्वचर्षणिः) विश्वरूप परमात्मा का दर्शन करानेवाला ब्रह्मज्ञानरूप सोम (योनिम्) शरीर-स्थिति इत्यादि के कारणभूत, (सधस्थम् अभि) जिसमें सब ज्ञानेन्द्रियों से उपलब्ध ज्ञान एकत्र स्थित होते हैं, उस आत्मा को लक्ष्य करके अर्थात् आत्मा में जाने के लिए (अयोहते) यम-नियम आदि रूप लोहे के हथौड़ों से ताड़ित अर्थात् संस्कृत (द्रोणे) मनरूप द्रोणकलश में (आ असदत्) आकर स्थित होता है ॥२॥
गुरुओं से समित्पाणि शिष्य के प्रति प्रवाहित किया हुआ ब्रह्मज्ञान का रस मन के माध्यम से आत्मा को ही प्राप्त होता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
(रक्षोहा) रक्षसां कामक्रोधलोभमोहादीनां हन्ता, (विश्वचर्षणिः) विश्वात्मकस्य परमात्मनो दर्शयिता ब्रह्मज्ञानरसरूपः सोमः (योनिम्) शरीरस्थित्यादिकारणभूतम्, (सधस्थम्) सह तिष्ठन्ति सर्वैः ज्ञानेन्द्रियैरुपलब्धानि ज्ञानानि अत्र इति सधस्थः आत्मा तम् (अभि) अभिलक्ष्य, तं प्राप्तुमित्यर्थः (अयोहते) यमनियमादिरूपैः अयोभिः हते ताडिते, संस्कृते इति यावत् (द्रोणे) मनोरूपे द्रोणकलशे (आ असदत्) आसन्नो भवति ॥२॥२
गुरुभिः समित्पाणिं शिष्यं प्रति प्रवाहितो ब्रह्मज्ञानरसो मनोमाध्यमेनात्मानमेव प्राप्नोति ॥२॥