क꣡या꣢ नश्चि꣣त्र꣡ आ भुव꣢꣯दू꣣ती꣢ स꣣दा꣢वृ꣣धः꣢ स꣡खा꣢ । क꣢या꣣ श꣡चि꣢ष्ठया वृ꣣ता꣢ ॥६८२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥६८२॥
क꣡या꣢꣯ । नः꣣ । चित्रः꣢ । आ । भु꣣वत् । ऊती꣣ । स꣣दा꣡वृ꣢धः । स꣡दा꣢ । वृ꣣धः । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । क꣡या꣢꣯ । श꣡चि꣢꣯ष्ठया । वृ꣣ता꣢ ॥६८२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
इस ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १६९ पर परमेश्वर तथा राजा के पक्ष में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा की महिमा वर्णित करते हैं।
यह (चित्रः) अद्भुत शक्तिवाला शरीर का अध्यक्ष इन्द्र आत्मा (कदा) किस अपूर्व (ऊती) रक्षा के द्वारा, और (कया) किस अद्वितीय (शचिष्ठया) अत्यन्त बुद्धिपूर्ण तथा क्रियाकौशलपूर्ण (वृता) वृत्ति के द्वारा (नः) हमारा (सदावृधः) सदा बढ़ानेवाला (सखा) मित्र (भुवत्) होता है ॥१॥
जिस आत्मा के बल से सब लोग सम्पूर्ण ऐहलौकिक और पारलौकिक उन्नति करने में समर्थ होते हैं, उस आत्मा का अवश्य सबको श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १६९ क्रमाङ्के परमेश्वरपक्षे राजपक्षे च व्याख्याता। अत्र जीवात्मनो महिमानमाह।
एष (चित्रः) अद्भुतबलः (इन्द्रः) शरीराध्यक्षो जीवात्मा (कया) अपूर्वया (ऊती) ऊत्या रक्षया, (कया) अद्वितीयया (शचिष्ठया) अतिशयेन शचीमत्या प्रज्ञावत्या क्रियावत्या वा। [शची इति कर्मनाम प्रज्ञानाम च। अतिशायने इष्ठनि ‘विन्मतोर्लुक्। अ० ५।३।६५’ इति मतुपो लुक्।] (वृता) वृत्त्या च (नः) अस्माकम् (सदावृधः) सदैव वृद्धिकरः (सखा) सुहृत्(भुवत्) भवति ॥१॥२
यस्यात्मनो बलेन सर्वे सर्वामैहलौकिकीं पारलौकिकीं चोन्नतिं कर्तुं क्षमन्ते स खलु नूनं सर्वैः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्च ॥१॥