ए꣣ना꣡ विश्वा꣢꣯न्य꣣र्य꣢꣫ आ द्यु꣣म्ना꣢नि꣣ मा꣡नु꣢षाणाम् । सि꣡षा꣢सन्तो वनामहे ॥६७४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एना विश्वान्यर्य आ द्युम्नानि मानुषाणाम् । सिषासन्तो वनामहे ॥६७४॥
ए꣣ना꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । अ꣡र्यः꣢ । आ । द्यु꣡म्ना꣡नि꣢ । मा꣡नु꣢꣯षाणाम् । सि꣡षा꣢꣯सन्तः । व꣣नामहे ॥६७४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में ५९३ क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधित करके व्याख्यात की गयी है। यहाँ गुरु को सम्बोधन है।
हे हमारे अन्तःकरणों को पवित्र करनेवाले गुरुवर ! (अर्यः) विद्याओं के स्वामी आप (एना) इन (विश्वानि) सब (द्युम्नानि) विद्याधनों को (मानुषाणाम्) हम मननशील शिष्यों को (आ) प्राप्त कराओ। उन विद्याधनों को (सिषासन्तः) अन्यों को प्रदान करने की इच्छावाले हम (वनामहे) आपसे सीखते हैं ॥३॥
जो मनुष्य गुरुओं के पास से अनेक प्रकार की भौतिक विद्याओं तथा आध्यात्मिक विद्याओं को पढ़कर अन्यों को पढ़ाते हैं, वे ही गुरु-ऋण से मुक्त होते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ५९३ क्रमाङ्के परमात्मानं संबोध्य व्याख्याता। अत्र गुरुः सम्बोध्यते।
हे पवमान सोम ! अस्मदन्तःकरणानां पवित्रकर्त्तः गुरो ! (अर्यः२) विद्यानामधीश्वरः त्वम् (एना) एनानि (विश्वानि) सर्वाणि (द्युम्नानि) विद्याधनानि (मानुषाणाम्) मननशीलानां शिष्याणामस्माकम् (आ) आगमय, प्रापय। तानि विद्याधनानि (सिषासन्तः) अन्येभ्यो दातुमिच्छन्तो वयम् (वनामहे३) संभजामहे ॥३॥४
ये मनुष्या गुरूणां सकाशाद् विविधा भौतिकविद्या अध्यात्मविद्याश्चाधीत्यान्यान् पाठयन्ति त एव गुरुऋणान्मुच्यन्ते ॥३॥