स꣢ न꣣ इ꣡न्द्रा꣢य꣣ य꣡ज्य꣢वे꣣ व꣡रु꣢णाय म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । व꣣रिवोवि꣡त्परि꣢꣯ स्रव ॥६७३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय मरुद्भ्यः । वरिवोवित्परि स्रव ॥६७३॥
सः꣢ । नः꣣ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । य꣡ज्य꣢꣯वे । व꣡रु꣢꣯णाय । म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । व꣣रिवोवि꣢त् । व꣣रिवः । वि꣢त् । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व ॥६७३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीय ऋचा की पूर्वार्चिक में ५९२ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में व्याख्या हुई थी। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय वर्णित करते हैं।
हे ज्ञानरस के भण्डार गुरु ! (सः) वह अतिशय गुणी आप (नः) हमारे (यज्यवे) विद्याध्ययन-यज्ञ के यजमानभूत (इन्द्राय) आत्मा के लिए, (वरुणाय) श्रेष्ठ मन के लिए और (मरुद्भ्यः) प्राणों के लिए (वरिवोवित्) उन-उनके अपने-अपने ऐश्वर्यों को प्राप्त करानेवाले होकर (परिस्रव) शिष्यों के मध्य विचरण कीजिए ॥२॥
गुरुओं को उचित है कि वे विद्या पढ़ाने के अतिरिक्त शिष्य के आत्मा, मन और प्राणों का भी विकास करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ५९२ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।
हे ज्ञानरसागार गुरो ! (सः) असौ अतिशयगुणवाँस्त्वम् (नः) अस्माकम् (यज्यवे) विद्यायज्ञस्य यजमानभूताय (इन्द्राय) आत्मने, (वरुणाय) श्रेष्ठाय मनसे, (मरुद्भ्यः) प्राणेभ्यश्च (वरिवोवित्) तत्तदैश्वर्याणां लम्भकः सन् (परिस्रव) शिष्याणां मध्ये विचर ॥२॥२
गुरूणामुचितमस्ति यत् ते विद्याध्यापनातिरिक्तं शिष्यस्यात्ममनःप्राणानामपि विकासं कुर्युः ॥२॥