उ꣣च्चा꣡ ते꣢ जा꣣त꣡मन्ध꣢꣯सो दि꣣वि꣡ सद्भूम्या ददे꣢꣯ । उ꣣ग्र꣢꣫ꣳ शर्म꣣ म꣢हि꣣ श्र꣡वः꣢ ॥६७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्रꣳ शर्म महि श्रवः ॥६७२॥
उ꣣च्चा꣢ । उ꣣त् । चा꣢ । ते꣣ । जात꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । दि꣣वि꣢ । सत् । भू꣡मि꣢꣯ । आ । द꣣दे । उग्र꣢म् । श꣡र्म꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ ॥६७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ४६७ पर रसागार परमेश्वर के आनन्दरस के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ विद्या के भण्डार गुरु के ज्ञानरस के पक्ष में व्याख्या की जा रही है।
हे जीवन को पवित्र करनेवाले गुरु ! (ते) आपके (अन्धसः) ज्ञानरस का (जातम्) उत्पन्न स्वरूप (उच्चा) अत्यन्त उच्च है। (दिवि सत्) प्रकाश में विद्यमान अर्थात् प्रकाशित उस ज्ञान को (भूमि) भूमि के समान स्वतः प्रकाश से रहित मैं (आददे) ग्रहण करता हूँ। उसके ग्रहण करने से मुझे (उग्रम्) प्रबल (शर्म) सुख और (महि) महान् (श्रवः) यश तथा धन प्राप्त होगा ॥१॥
गुरु से शास्त्रों का अध्ययन करके और ब्रह्मविद्या का अनुभव प्राप्त करके शिष्य अपने जीवन में शान्त, सुखी और यशस्वी होते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४६७ क्रमाङ्के रसागारस्य परमेश्वरस्यानन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र विद्यागारस्य गुरोर्ज्ञानरसविषये व्याख्यायते।
हे पवमान सोम जीवनस्य पवित्रतासम्पादक गुरो ! (ते) तव (अन्धसः) ज्ञानरसस्य (जातम्) उत्पन्नं रूपम् (उच्चा) अत्युच्चं वर्त्तते। (दिवि सत्) प्रकाशे विद्यमानं तत् (भूमि) भूमिः, भूमिवत् स्वतःप्रकाशरहितोऽहम् [सोर्लोपः सन्धिश्च छान्दसः।] (आ ददे) गृह्णामि। तज्ज्ञानग्रहणेन च मम (उग्रम्) प्रबलम् (शर्म) सुखम्, (महि) महत् श्रवः यशः धनं च जनिष्यते ॥१॥२
गुरोः सकाशाच्छास्त्राण्यधीत्य ब्रह्मविद्यां चानुभूय शिष्याः स्वजीवने शान्ताः सुखिनो यशस्विनश्च जायन्ते ॥१॥