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इ꣡न्द्रा꣢ग्नी जरि꣣तुः꣡ सचा꣢꣯ य꣣ज्ञो꣡ जि꣢गाति꣣ चे꣡त꣢नः । अ꣣या꣡ पा꣢तमि꣣म꣢ꣳ सु꣣त꣢म् ॥६७०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्राग्नी जरितुः सचा यज्ञो जिगाति चेतनः । अया पातमिमꣳ सुतम् ॥६७०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । ज꣢रितुः꣣ । स꣡चा꣢꣯ । य꣣ज्ञः꣢ । जि꣢गाति । चे꣡तनः꣢꣯ । अ꣣या꣢ । पा꣣तम् । इम꣢म् । सु꣣त꣢म् ॥६७०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 670 | (कौथोम) 1 » 1 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 1 » 2 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (जरितुः) विद्याओं का वर्णन करनेवाले उपदेष्टा आचार्य का (सचा) गुरु-शिष्यों द्वारा साथ मिलकर किया हुआ (चेतनः) चेतानेवाला (यज्ञः) विद्यायज्ञ (जिगाति) प्रवृत्त हो रहा है। तुम दोनों (अया) इस पद्धति से (सुतम्) निष्पादित (इमम्) इस विद्या-यज्ञ की (पातम्) रक्षा करते हो ॥२॥

भावार्थभाषाः -

गुरु-शिष्य आपस में मिलकर ही ज्ञान-यज्ञ का अनुष्ठान करके राष्ट्र में सब प्रकार की विद्याओं का प्रचार करते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (जरितुः) स्तोतुः उपदेष्टुः आचार्यस्य (सचा) गुरुशिष्याभ्यां सह मिलित्वा सम्पादितः (चेतनः) चेतयिता ज्ञापयिता (यज्ञः) विद्यायज्ञः (जिगाति२) प्रवर्तते। [जिगाति गतिकर्मा। निघ० २।१४।] युवाम् (अया) अनया दिशा (सुतम्) निष्पादितम् (इमम्) एतं ज्ञानयज्ञम् (पातम्) रक्षतम् ॥२॥

भावार्थभाषाः -

गुरुशिष्याः परस्परं मिलित्वैव ज्ञानयज्ञमनुष्ठाय राष्ट्रे सर्वप्रकारा विद्याः प्रचारयन्ति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ३।१२।२, ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिरेतमपि मन्त्रमध्यापकोपदेशक- विषये व्याचख्यौ। २. जिगाति गायति चेतनः, लुप्तोपमानमिदं चेतन इव—इति वि०।